३२८ पदुमावति । १५ । सात-समुदर-खंड । [१५५ = । श्राकाश जरते हैं ॥ उसी समुद्र में जो आग उत्पन्न हुई है, अर्थात् जो बडवानल है, उसी के एक विन्दु से, अर्थात् उसी अग्नि के एक कण से ( हनुमान जी द्वारा) लङ्का भस्म हो गई है ॥ (मो संसार में ) जो विरह-(अनल) उत्पन्न हुआ है। उसी से (बडवानल ) काढा है, अर्थात् ब्रह्मा ने बडवानल को विरह के एक कणिका को निकाल कर, उसी से बनाया है। यह कवि को अतिशयोक्ति है। (मो वह विरह) जगत् में तैसा बढा हुआ है, अर्थात् तैसा सर्वत्र व्याप्त है, कि (एक) क्षण (भौ) नहीं - बुझता है। रात दिन विरही के हृदय में पैठ, सब अङ्ग को दहन किया करता है। श्री-हर्ष ने भी इस विरहानल की महिमा में लिखा है, कि सतौ विरहानल को बुझाने-हौ के लिये हिमालय के घर जन्म लिया और महादेव के ललाट में जो संसार-दाहक ज्वाला-मय तीसरा नयन है, वह वस्तुतः सती-विरहानल है। और यह विरहानल माधारण अग्नि से बढ कर है; तब तो नारी-जन पति-विरहानल के दुःख से छुटकारा पाने के लिये चितानल में मृत-पति के संग भस्म हो जाती हैं, जनुरधत्त सतौ स्मरतापिता हिमवतो न तु तन्महिमादृता । ज्वलति भालतले लिखितः सती-विरह एव हरस्य न लोचनम् ॥ दहनजा न पृथुर्दवथुव्यथा विरहजैव पृथुर्यदि नेदृशम् । दहनमाश विशन्ति कथं स्त्रियः प्रियमपासुमुपासित मुद्भुराः ।। (नेष० स० ४ । श्लो० ४५-४६)। सो जिन्ह को विरह (-अनल) है, अर्थात् जिन्हाँ ने विरहानल को सह लिया है, उस को माथ साथ लिये चलते फिरते हैं। तिन्हें ( यह समुद्र को) श्राग नहीं देख पडतो, अर्थात् वे लोग दूस भाग को कुछ नहीं समझते। (जो विरहानल को मह लिया है, वह दूस भाग के ) सामने जरता है, और फिर कर पौठ नहीं देता है, अर्थात् दूस को तुच्छ समझ कर, इस के भीतर बराबर चला जाता है | संसार में (यह प्रसिद्ध है, कि) तरवार को धार कठिन है, (परन्तु ) विरह को दमक (झारा) तलवार (कौ चमक) से (भौ) अधिक है ॥ (कवि कहता है, कि जिस के विरह से यह अग्नि उत्पन्न होती है वह प्रेम-मय प्रियतम) यदि ऐसे अगम्य राह में न होता, (तो) श्रद्धा करने से सब कोई (उस प्रियतम को) पाता, अर्थात् तब तो सर्व साधारण को सुलभ हो जाने से इस
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