१५४] सुधाकर-चन्द्रिका। ३२५ तो फाड कर बिगाडता-हौ है किन्तु प्राणी के जीवन (नौर) को भी स्वादु-रहित कर देता है, जिस की ओर एक पखेरू भी भूल कर, एक नयन-कोर से भी नहीं निरेखता। (प्रेम-सर दैव-वश जम कर, यदि दधि-स्वरूप हो भी गया, तो भी उस में से अपने प्रियतम-रूप, पुनीत, नवनीत का निकालना सहज नहीं है)। साँस-(रूपौ) दृढ (रज्जु ) (और) गाढी मन-(रूप) मथानी रहने पर भी, अर्थात् प्राणायाम के बल से श्वास को दृढ और मन को अचलस्तम्भ के सदृश कडा कर लेने पर भी, विना हृदय के चोट से, अर्थात् दधि के मध्य में विना उस मथानी के आघात से, साढी नहीं फूटतौ ( जिस से कि नवनीत मिले )। कवि का तात्पर्य है, कि योग-विद्या से श्वास दृढ और मन अचल कर लेने से भी जब तक समाधि लगा कर, हृदय के मध्य, श्वास-रज्जु से फिरा फिरा कर मन-मथनी से श्राघात न करोगे, तब तक हृदय दधि के अन्तर्गत परब्रह्म-रूप प्रियतम नवनीत का मिलना दुर्घट है ॥ (दधि-समुद्र के दाह को राजा ने कैसे सह लिया। इस पर कवि की उक्ति है, कि ) जिस के जौ में प्रेम है, तिसे भाग चन्दन है, अर्थात् प्रेम की आग में सब से बढ कर ज्वाला है। सो जिम का जीव उस ज्वाला से तप्त है, उस को और भाग को ज्वाला शौतल लगती है। गर्मी खभावतः सर्वत्र सम-भाव से रहती है, इस लिये अधिक-तप्त पदार्थ, अल्प-तप्त पदार्थ से जब संयोग करेगा तो सम-भाव होने के लिये अधिक-तप्त पदार्थ अपनी गर्मी में से कुछ अंश न्यून-तप्त पदार्थ की गर्मी में मिला देगा। इस लिये अधिक-तप्त पदार्थ से न्यून-तप्त पदार्थ-हो और अधिक गर्म हो जायगा, और अधिक-तप्त पदार्थ, कुछ गर्मों का भाग निकल जाने से, अपने को कुछ शीतल समझेगा। इस लिये महा-प्रेमानल से झुलसा हुआ प्राणी को इतर अल्पानल-ज्वाल शीतल लगता है ; यह कवि का कथन शास्त्र-संमत है। (जो) विना प्रेम का है, अर्थात् जिसे प्रेमानल का दाह नहीं व्याप्त है, (वह अवश्य दूतर अग्नि से ) डर कर, (और ) भाग कर, फिरता है, अर्थात् उस आग के आगे से लौट जाता है । (कवि कहता है, कि) यदि कोई प्रेम की भाग से जरे, अर्थात् जर जाय, (तो) तिस का (यह भस्म-रूप ) दुःख वृथा नहीं होता है, अर्थात् जैसे सुवर्ण भाग में डहने से, मल भस्म हो जाने से, और उत्तम कान्तिमान् हो जाता है, उसी प्रकार प्रेमाग्नि से सकल उपाधि के भस्म हो जाने पर पर-ब्रह्म रूप हो, प्राणो दिव्य-खरूप हो जाता है। इस लिये भस्म हो जाने का दुःख व्यर्थ नहीं होता। उम्र के बदले वह 1
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