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३२४ पदुमावति । १५ । सात-समुदर-खंड । [ १५४ श्रावृथा जानदू = . जमादू = जमाय कर, जन्मा कर। मंथि = मन्थयित्वा =मथ कर। काढदू = (कर्षति) काढता है। घोऊ = त = घौ। बूंद = बिन्दु। जाम = जमद (जायते)। खौरू = चौर = दूध । काँजो = काञ्जौ = मठा = -मंठा । बिनाम (विनाशयति) विनाश करता है। नौरू = नौर -जल । साँस = श्वास । डौढ = दृढ = मजबूत । मन-मॅथनी = मनो- मन्थिनी - मन-ही जो मथानौ। मथानी महने को लकडी = छोरी। गाढौ कठिन। हिअ = हृदय। चोट = घाव = आघात। बिनु = विना। फूट = फुटदू ( स्फुटति) फूटती है। साढौ = सार = बालाई । चंदन = चन्दन । श्रागौ = अग्नि = श्राग। बिहन विहीन = विना। फिर = ( स्फरति) फिरता है। डरि= डरद (दरति) से ल्यप् = डर कर । भागौ = भागद् (भाजयति ) से ल्यप् =भाग कर । जरद् = (ज्वलेत् ) = जरे। दुख = दुःख । अबिरथा -श्राव्यर्थ = बे-फायदा बे-मतलब । (जानाति ) जानता है। जारा =जार । निमत = निःसत्य । सत = सत्, वा सत = शत सौ। कर = ( करोति) करता है ॥ समुंद = समुद्र। भे= भये। कहाँ = कथम् । संभार = सम्भार। भाव भावेन = चाहे। पर = ( पतेत् ) परे= पडे। अँगार - अङ्गार अंगारा ॥ (राजा जैसे-हौ) दधि के समुद्र को (देखा) तैसे-ही देखते डह गया, अर्थात् उस को ज्वाला से भस्म हो गया, (परन्तु ) प्रेम का लोभी इस दग्ध (होने के दुःख ) को सहा, अर्थात् प्रेम की चाह से दूस दुःख को कुछ न समझा, सह लिया ॥ (कवि कहता है, कि) प्रेम ने जिस (जीव) को दग्ध कर दिया है। वह जीव धन्य है। ( वही जीव दूस प्रेम-रस को) दही जमा कर, (उसे ) मथ कर, घी (प्रेम-तत्त्व-रूप अपने प्रियतम) को निकालता है। (यह न समझो, कि अपार प्रेम-रस का सागर कैसे दही-सदृश जमेगा) दही के एक बूंद से सब दूध जम जाता है, (अर्थात् जैसे दही के एक बूंद से सब दूध जम जाता है; उसी प्रकार यदि प्रेम-रस का एक बूंद भी गाढा हो कर, अपने प्रियतम के रूप-रौप्य की संयोग-वासना से जम कर, दही हो जाय, तो वहीं दधि-विन्दु मारे प्रेम-रस सागर को भी जमा देगा)। (और) काँजौ का एक विन्दु (दूध को कौन कहे) जल को भी नाश कर देता है, अर्थात् मठे एक विन्दु से दूध तो फट कर बिगड-हो जाता है, किन्तु जल जो है वह भी उस के संयोग से अपेय हो जाता है। इसी प्रकार मठा के ऐसा एक प्रेम-रस-विन्दु, जो प्राणों के हाथ दैव-योग से लग गया है, पतला पड जाने से प्रेम-रस-सागर को 3 -