[१५२ सुधाकर-चन्द्रिका। - लगाव मगर - 1 मदत करने-वाला। खेद = खे कर = खेवद (खेवते) का क्वा के स्थान में ल्यप् करने से बना हुआ प्रयोग। लेद = ले कर, लेद् (लाति) से ल्यप् किया गया। लावद् = लगद (लगति) का णिजन्त । पारू = पार । ताकु ताकद (तर्कयति) = ताकता है = देखता है। श्रागू = अग्रे = भागे। पाळू = पश्चात् । मकर- जल-जन्तु-विशेष । मच्छ = मत्स्य । काकू =कच्छप ककुत्रा । उठ = (उत्तिष्ठते) उठती है। लहरि = लहरी=तरङ्ग । ठाढ = ( स्थीयते) ठढा है = खडा है। पहार = प्रहार = पहाड = पर्वत । चढदू = (चलति) चढता है। सरग = स्वर्ग = श्राकाश। परदू = (पतति) पड़ता है। पतारा = पाताल । डोलहिँ = डोल (दोलति) का बहु-वचन । लहर' = लहर का बहु-वचन = लहरें। खाहौँ = खाहि = खाद (खादति) का बहु-वचन । खन = क्षण । तरकहिँ = तलक में = तल में, वा तरकहिँ : = तडकदू तायते) का बहु-वचन । उपराही = उपरि हि = ऊपर । राजदू = राजा ने। हिरदद् = हृदय दिल । बाँधा = बाँधदू (बध्नाति) का भूत-काल । टेकि = टेक कर = संभार कर । गिरि= पहाड । कांधा = स्कन्ध कंधा | खार = क्षार । नाँघा - नाँघदू = (लवते) का भूत-काल। खौर = क्षौर= दूध। मिले मिल (मिलति) का भूत-काल में बहु-वचन । मात-उ = सप्तापि= मातो। बेहर = विहरः विधर्म = भिन्न। बेहर बेहर = अलग अलग = भिन्न भिन्न = जुदे जुदे । नौर = जल = पानी ।। हृदय में सत्य भरा ( पूरा) (राजा) सागर को तरता है, अर्थात् खार समुद्र में चलना प्रारम्भ करता है। ( कवि कहता है, कि) यदि जी में मत्य (सङ्कल्प ) है, (तो) फिर (उसी सत्य-प्रभाव से) कादर भौ शूर (बहादुर ) हो जाता है (नहीं तो हाथी, घोडे, पालकी पर का चलने-वाला, मखमल को शय्या पर विहार करने-वाला, वराङ्गनाओं के हाव भाव लीला की लहरौ में लहराने-वाला, बालाओं के रङ्ग उमङ्ग में चङ्ग, राजा रत्न-सेन, कैसे केवटों के सङ्ग में निःसंशय तरङ्ग-लोल-कल्लोल से भरे घोर सागर में तरने के लिये घर को मोह माया बहा, दूर था कर, रत्नाकर बहादुर बनता) ॥ तिन्ह सभों ने, अर्थात् केवटों ने जहाजों को भर पूर चलाया, अर्थात् जितना वेग संभव था, उतने वेग से जहाजों को चलाया। जिन जहाजों में (ऐसा वेग उत्पन्न हुआ) जानों सैकडों (मत = प्रत ) पवन के पंखे लगाये हाँ ॥ (कवि कहता है, कि ऐसे समय में प्राणी का) सत्य-ही साथी, सत्य-ही गुरु (और ) सत्य-ही सहायक होता है। सत्य-ही खे कर, (और उस प्राणी को) ले कर पार लगाता है।
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