३१६ पदुमावति । १४ । बोहित-खंड । [१५१ राजा (रत्न-सेन ) ने (केवटों से) कहा, कि रे ( केवट) जिस ने उस (मो) प्रेम को किया, अर्थात् जिम ने प्रेम-पथ में पैर डाला (उस को) कहाँ का कुशल ( और ) क्षेम, अर्थात् उस को इस को चिन्ता नहीं, कि कुशल और क्षेम हो ॥ (सो) तुम लोग यदि (जहाज को) खे सकते हो (तो) खेवो। जैसे आप तरो, (तैसे ) मुझे (भी) तारो, अर्थात् जैसे तुम लोग आप पार उतरोगे, तैसे-हो मुझे-भी उतारो ॥ (जितना तुम लोगों को कुशल का सोच है) उतना मुझे कुशल का सोच नहौं । यदि जन्म न होता तो कुशल होता, अर्थात् जब जन्म ले कर प्राणी संसार में आया तब कहाँ कुशल ; कहावत प्रसिद्ध है, कि कुशल होत जउ जनम न होत ।' दूस लिये मुझे कुशल को कुछ-भौ चिन्ता नहीं ॥ (क्योंकि ) धरती और वर्ग (ये) दोनों जाँत के । पल्ले हैं। जो (जीव) तिन (पल्लों) के बीच में आया (फिर) (वह) जीव कथमपि नहीं बचता है, अर्थात् विना मरे नहीं रहता। कबीर-दास ने भी कहा है, कि ;- 'दो चक्की के बीच में साबिा गया न कोय । यही तमासा देखि के कबिरा दोन्हा रोय ॥' मैं (हउँ = हाँ = अहम् ) अब निश्चय कर (पद) एक कुशल माँगता हूँ, (कि) प्रेम-पथ में सत्य बाँध कर खञ्ज न होऊँ, अर्थात् प्रेम-मार्ग में चलने का जो सत्य- सङ्कल्प किया है, वह न टूटे ॥ (तुम लोगों ने जो वर्णन किया है, कि आगे बडा भयङ्कर समुद्र है, 'तहाँ न चाँद न सुरुज असूझा' सो दूस की परवाह मुझे नहीं है, क्याँकि) यदि हृदय में सत्य है, तो (वही सत्य ) नयनों में दीप है, अर्थात् सत्य अन्धकार में भी नयनों को ज्योति को अविकृत रखता है। ( सत्य-सङ्कल्प-हौ से मोती निकालने के लिये) गोता-खोर समुद्र में पैठ कर (भौ) नहीं डरता है, अर्थात् मोती पाने के सत्य-सङ्कल्प से, गोता-खोर समुद्र के भीतर भी आँखों को अविकृत-ज्योति से मोती को निकाल लेता है ॥ ( सो गोताखोर के ऐसा मैं भी) ढिढोरा दे कर, तहाँ तक समुद्र को हेरूँ, अर्थात् ढंगा, जहाँ तक, कि रत्न पदार्थ को जोडी है, अर्थात् जहाँ तक कि मेरौ जोडौ पद्मावतौ है, तहाँ तक डंका पौट कर समुद्र को ढूढ़ेगा। जिस का जो चाहे, सो पा कर विघ्न करे और मुझे रोके; मैं किसी से हारने-वाला और रुकने-वाला नहीं ॥ जैसे (वेद व्यास ने ) सातो पातालों को खोज कर, वेद-ग्रन्थों को काढा; तिमी प्रकार जिम राह में पद्मावती है (वह राह यदि सातो वर्गों के ऊपर भी हो तो)
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