१४७] सुधाकर-चन्द्रिका। ३०५ कुन्ती, विवाह होने के पहले एक दिन यमुना नहाने गई थी। उस की शोभा को देख, सूर्य उस पर आसक्त हुए। उसी सूर्य के शुक्र से कर्ण की उत्पत्ति हुई। सूर्य के प्रसाद से कुन्ती का कुमारी-धर्म नहीं नष्ट हुआ। पीछे से यह पण्डु से व्याही गई। कुन्ती ने कर्ण को जन्मते-ही लोकापवाद-भय से यमुना में बहा दिया। यह बहते बहते प्रयाग में गङ्गा जी में आया। वहाँ से बहते बहते विहार में पहुंचा। वहाँ एक रथ-कार (लोहार वा बढई) को स्त्री राधा ने इसे पकडा और वंश में कोई पुत्र न रहने के कारण, अपना पुत्र मान लिया। राधा का पति इन्द्र-प्रस्थ में पण्डु के यहाँ रथ बनाने पर नोकर था। नोकरौ पक्की हो जाने पर पौछे से राधा भी अपने पुत्र कर्ण को लिये, अपने पति के साथ इन्द्र-प्रस्थ में रहने लगी। दुर्योधन को मित्रता से कर्ण शस्त्र-निपुण और बडा प्रख्यात हुआ। यह बडा-हौ वीर, धौर, और दानी था। जिस घडी यह पूजा कर के उठता था, उस समय जो कोई सत्यात्र जो कुछ माँगता था, नाही नहीं करता था। इस का जन्म शरीरस्थ कवच और कुण्डल के साथ हुआ था। एक वेर पूजा के समय इन्द्र ने श्रा कर, कवच और कुण्डल को माँगा। दूस ने तुरन्त अपनी शरीर में से नोच कर, इन्द्र को कवच और कुण्डल दे दिया (भारत श्रादिपर्व, अध्या. ६७, श्लो० १४१-४३) दूस स्थान पर व्यास लोग कर्ण के औदार्य पर अनेक कहानी सुनाते हैं। युधिष्ठिर ने एक वेर कृष्ण से पूँछा, कि हमारे लोगों में कौन दानौ है, कृष्ण ने कहा, कि कर्ण; इस पर युधिष्ठिर उदास हुए। कुछ दिन बीते वर्षा-ऋतु में एक ब्राह्मण श्रा कर, कृष्ण के साथ कोठे पर बैठे युधिष्ठिर से विनय किया, कि महाराज, ब्राह्मणी को लडका हुआ है, सो शीत-निवारणार्थ कुछ इन्धन चाहिए । युधिष्ठिर ने भण्डारी को श्राज्ञा दिया, कि ब्राह्मण को इन्धन दो। भण्डारी ने ब्राह्मण से कहा, कि इस समय भण्डारे में इन्धन नहीं है। मनुष्य वन में भेजा गया है ; श्राप एक पहर के बाद आइये, यथेच्छ इन्धन मिलेगा। इस पर युधिष्ठिर ने भी ब्राह्मण से यही कहा, कि पहर भर के बाद श्रा कर, भण्डारी से यथेच्छ इन्धन ले जाइयेगा। वह ब्राह्मण वहाँ से फिर कर, कर्ण के घर पर आया जो युधिष्ठिर के घर के सामने ही था। और उन से भी इन्धन के लिये प्रार्थना की। कर्ण ने भी इन्धन के लिये भण्डारी को श्राज्ञा दिया। दैवात् उन के यहाँ भी भण्डारे में इन्धन न रहा। दूस लिये भण्डारी ने ब्राह्मण से विनय किया, कि देवता, पहर भर के बाद 39
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