३०४ पदुमावति । १३ । राजा-गजपति-संबाद-खंड । [१४७ समय स्वर्ग जाने में निर्मल राह देखाती है। कोई कुछ भी नहीं ले जायगा, (पर) निश्चय से दिया (दान) अवश्य माथ जाता है, अर्थात् अन्त में सब कोई माथ छोड देता है परन्तु दान-धर्म-हौ सदा साथ दिये रहता है। हातिम मुसल्मानों में एक बड़ा प्रसिद्ध वौर, धौर, और दानी हो गया है। जैसे विक्रम की प्रशंसा में सिंहासन बत्तीसी, बैताल-पचौमी बनी हुई हैं ; उसी प्रकार दूस की प्रशंसा में पारसी में 'हातिम ताई' बनी है। दूस के पिता का कुल ते वंश में था। इस लिये इसे लोग हातिम ताई कहते हैं, अर्थात् हातिम तै वंश का । एक सौदागर को कन्या हुस्नबानू से विवाह करने के लिये एक राज-पुत्र, मुनौरशामी, श्रातुर हुआ। परन्तु हुस्नबानू की प्रतिज्ञा थी, कि जो कोई मेरे स्थिर किये हुए सातो प्रश्नों का उत्तर करेगा उसी से मैं विवाह करूंगी। मुनीरशामी को, उत्तर न होने पर, हुस्नबानू ने वर्ष दिन की अवधि दी थी। यह रोता हुआ वन में गया, वहाँ हातिम से भैंट हुई। हातिम ने प्रतिज्ञा कौ, कि मैं तेरे बदले सातो प्रश्नों का उत्तर करूंगा। प्रतिज्ञानुसार बडे बडे दुःखों को भोग कर, हातिम ने उन उत्तरों को दिया और मुनौर शामौ से हुस्नबानू का विवाह कराया। यह हातिम यमन नगर का राजा था। एक वार एक भेडिये ने एक प्रसूता हरिणौ को, भक्षण करने के लिये, पकड लिया। अनाथ उस मृगौ का बच्चा कैसे जौयेगा; दूस विचार से भेडिये को दधीचि के ऐसा अपने चूतरों की मांस दे कर, हरिणौ को छोडाया। यह ऐसा दानी, मानौ और सत्यभाषौ था, कि पशुओं में भी इस का यश फैल रहा था। जैसे वृक्ष-पति जाम्बुवान् ने कृष्ण से अपनी कन्या जाम्बुवती का विवाह किया ; उसी प्रकार जब हुस्नबानू के पहले प्रश्न ( एक वेर देखा है, दूसरी बार देखने को अभिलाषा है) के उत्तर की खोज में दूस ने वन-यात्रा किया है। उस समय इस का यश और नाम सुन, उस समय का ऋक्ष-पति ने इस के साथ अपनी कन्या का विवाह करना निश्चित किया। परन्तु हातिम ने अखौकार किया। इस पर ऋक्ष-पति ने हातिम को कैद किया। अन्त में एक दिव्य-पुरुष के कहने से हातिम ने उस ऋच- पति को पुत्री से विवाह किया और उसी के प्रसाद से पहले प्रश्न के उत्तर को भी पाया। यह सब मनोहर कथा 'हातिम ताई' में हैं। मुनगी नवलकिशोर ने इस का हिन्दी-अनुवाद भी छपवा दिया है जो 'श्रारायण-महफिल' (Jan Oil) दूस नाम से प्रसिद्ध है। .
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