२८८ पदुमावति । १३ । राजा-गजपति-संबाद-खंड । [१४६ .. - साध्वौ स्त्री । ददउ = देव = भगवान् = ईश्वर । उतार = उतारे = उतारदू ( उत्तारयति) का लिङ् लकार में प्रथम-पुरुष का एक-वचन ॥ (कवि कहता है, कि) वियोग के योग से, अर्थात् विरहाग्नि के संयोग से कठिन दुख-दाह है, अर्थात् कठिन दुःख देने वाला दाह (ताप) उत्पन्न होता है, (जिम से विरही) जन्म (भर) जरा करता है, अन्त में निर्वाह होता है, अर्थात् अन्त में प्राण देने-ही से छुटकारा पाता है, और कोई उपाय-ही नहीं, जिस से वह ताप शान्त हो। कवि का अभिप्राय है, कि योग साधते साधते मर कर, दूसरी काया पाने से, और सिद्ध हो जाने से, जिस का विरह हुआ है, उस के मिलने-हौ से वह दाह शान्त होता है॥ तहाँ, अर्थात् विरहाग्नि-दाहावस्था में डर और लज्जा दोनों निकल जाती हैं, अर्थात् जैसे साधारण श्राग में सुवर्ण को तपाने से सुवर्ण-मिलित मालिन्य भस्म हो जाते हैं; उसी प्रकार विरहाग्नि के बीच में पड़ने से शरीरस्थ लोकापवाद-जन्य लज्जा, और प्राण जाने का भय, ये दोनों भस्म हो जाते हैं, (इस लिये वह विरही प्राणी) न ाग, न पानी, कुछ भी नहीं देखता है (क्योंकि देखे तो तब जब प्राण का भय हो) ॥ (वह विरही) आग देख कर, उस के आगे-हो दौडता है। पानी देख कर, उस के सामने धसा आता है। जैसे बौरहा समझाने से नहीं समझता, (चाहे) जौन भाँति से (कहो) क्या सूझा जाता है ? अर्थात् क्या उस को कुछ सूझ पडता है? अर्थात् नहीं सूझ पडता, (उसी प्रकार से विरही को भी कुछ नहीं सूझ पडता) ॥ (वह विरही) हृदय में मगर मच्छ के डर का लेखा नहीं करता, अर्थात् समुद्र में जाने से मगर मच्छ खा जायँगे ; इस का उस को कुछ परवाह-ही नहौं ; (वह) श्राप-ही प्रभा को देखा चाहता है, अर्थात् जिस के विरह-दाह से मर रहा है, उस के कान्ति-दर्शन-ही को वह सब से प्रधान समझता है॥ और उसे सिंह व्याघ्र भी नहीं खाते हैं (खाने के लिये जहाँ उस के निकट आये तहाँ विरहाग्निज्वाल से उन के मुह जरने लगते हैं, इस लिये सिंह व्याघ्र भौ विरही को नहीं खाते, यह कवि का तात्पर्य है)। विरहिणी के वर्णन में खानखाना ने भी यह वरवा लिखा है- 'बिरहिनि ढूँढन बन गद् बाघ भेंटान। बघवा सूंघि न खाण्म बिरहिनि जान ॥'। (और विरह-ज्वाल के ताप से ) वह (विरही ) काठ से भी अधिक निश्चयेन अर्थात् शुष्क रहता है | उस के संग में न (उम कौ) शरीर, न (घर को) माया,
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