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२४४] सुधाकर-चन्द्रिका। २२३

संकल्प कर (दूम राह को) खौँ दुःख-ही को लिया, अर्थात् पहले-हौ से समझ लिया, कि दूस प्रेम-मार्ग में दुःख-ही खाने पीने को मिलेगा; (ऐसा मन में दृढ कर) तब सिंहल की यात्रा किया ॥ (हे गज-पति, मेरी दूस बात को सुन कर, संभव है, कि श्राप मुझे मन में पागल समझते हाँ,) परन्तु (निश्चय समझिये, कि) निश्चय से भ्रमर-ही कमल को प्रोति जानता है; जिस में प्रेम की व्यथा बौती है, अर्थात् कमल-विरह से जो असह्य पीडा होती है, उसे भ्रमर भोग चुका है, तब कमल-प्रौति के सुख को जानता है, जिस से लुब्ध हो रात में कमल के संपुटित होने पर कैदी-सा पडा रहता है, परन्तु वहाँ से टरता नहौं । मो श्राप के ऊपर प्रेम-व्यथा नहीं बीती है, श्राप दूस को नहीं जान सकते; कहावत है, कि 'न हि वन्ध्या विजानाति सूतिका- परिवेदनाम्' 'बाझ न जान प्रसव को पौरा' । 'जा के पैर न फटी बेवाई। वह का जानदू पौर पराई' ॥ और जिस ने प्रेम का समुद्र देख लिया, तिम ने दूस समुद्र (क्षार, चौर, इत्यादि) को बूंद लिखा है, अर्थात् तिस के मत से ये समुद्र, जिन का भयकर वृत्तान्त श्राप ने सुनाया है, एक जल-विन्दु के समान हैं ॥ मत्, अर्थात् मेरा सत्य-प्रेम सातो समुद्रों का संभार किया है, अर्थात् सातो समुद्रों का जो दुःख-भार है, उसे मेरा सत्य-प्रेम संभालेगा, (क्योंकि) यदि पृथ्वी है, (तो उस के श्रागे) पहाड को गुरुता (भार) क्या है, अर्थात् कुछ भी नहीं है। पृथ्वी सब पहाडों को गुरुता सँभाले-ही है। इसी प्रकार धरित्री-सदृश मेरा मत् (सत्य-प्रेम) पहाड-सदृश मातो समुद्रों के दुःख-भार को अवश्य सँभालेगा ॥ जिन्हों ने निश्चय से, जीव से सत-रूपी नाव को बाँधा है, अर्थात् जीव को पक्का कर सत-रूपौ नाव को जो तयार कर लिया है; वे लोग (उस नाव पर चढ कर) चाहे जीव (चला) जाय ( परन्तु) फिर फेरने से नहीं फिरते ॥ ( सो हे गज-पति) रंग, अर्थात् प्रेम-रङ्ग, (जिस का वर्णन १४१ ३ दोहे में 'जहि के हिअर पेम-रंग जामा। का तेहि भूख नौंद बिसरामा॥' यह कर आये हैं) जिस का मैं नाथा हूँ, उसी के हाथ में नाथ है, अर्थात् नकेल है। ( वहौ प्रेम-रङ्ग) नकेल को पकडे खौंच रहा है, (मेरा) शिर (माथ) फेरने से नहीं फिरता, अर्थात् श्राप को शिक्षा मन में आती है परन्तु क्या करूँ, लाचार है, पद्मावती का प्रेम- रङ्ग मुझे नाथ कर अपने प्रवल कर से पद्मावती-ही की ओर खींच रहा है, किसी प्रकार से मेरा शिर फेरने से नहीं फिरता है ॥ १४४ ॥ 3B