२८९ पदुमावति । १३ । राजा-गजपति-संबाद-खंड । [१88 पद = - प्रयाण = गमन 11 मन-सकती= मनः-शक्ति मन को शक्ति, अर्थात् जीव । सौउ = शिक्षा = सौख । अपि, यहाँ परन्तु । पेम = प्रेम । जोऊ = जीव । सिर = शिर । देद् = दत्त्वा दे कर। पगु = प्रग = -पग = पैर। धरई = (धरति) धरता है। मूए = मरे हुए = मृतक । मौचु = मृत्यु । करई = (करोति) = करता है। सँकलपि = संकल्प्य = संकल्प कर दे कर। दुख = दुःख । साँबरि = संवल = राह-खर्च । तउ = तदा = तब । पयान यात्रा। जान = जान (जानाति)। कवल कमल । पिरोती- प्रौति = स्नेह । विथा = व्यथा = पौडा। बौती = बौतद् (व्यत्येति) का भूत-काल में स्त्रीलिङ्ग का एक-वचन समुद = समुद्र। बूंद = विन्दु । परि-लेखा = परि-लिखद् (परि-लिखति) का भूत-काल। सात= सप्त। सत = सत् = सत्य-प्रेम। सँभारू = सम्भार भार = बोझा। धरती= धरित्री = पृथ्वी। गरुत्र=गुरु गढ़ =भारी। पहारू = प्रहार वा प्रस्तार = पहाड। बाँधा = बाँधद् (बध्नाति ) का भूत-काल । बेरा बेडा = नाव। बरु = वर = बल्कि = चाहे। फिरदू = ( स्फुरति ) फिरता है = लौटता है। फेरा = फेरने से = लौटाने से ॥ रंग = प्रेम-रङ्ग । नाथ = नाथा हुअा (नाथु बन्धने ) । हउँ= अस्मि = है। हाथ = हस्त । नाथ = बन्धन = नकेल । गहे = ग्टलन् = पकडे हुए। खाँचई =(कर्षति ) खौँ चदू = खींचता है। फेरत = फेरने से। माथ = मस्तक, यहाँ शिर ॥ (राजा रत्न-सेन ने कहा, कि) गज-पति, यह (आप को) शिक्षा मन को शक्ति (जीव) से है, अर्थात् यदि जीव ठेकाने रहे, तो मन दूस शिक्षा को मान सकता है। परन्तु जिस के (हृदय में ) प्रेम हुआ, अर्थात् प्रेम ने प्रवेश किया, तिस को कहाँ जौव, (क्योंकि एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती, एक वन में दो सिंह नहीं रह सकते, एक नगर में दो राजाओं का अधिकार नहीं हो सकता, सो जीव से बड़ा प्रतापी जो प्रेम, मो मेरे हृदय में अधिकार कर लिया, अब जीव का कहाँ ठकाना ) || जो पहले-हौ शिर दे कर, पैर धरता है, (१२५ वे दोहे में शुक के उपदेश से राजा ने संकल्प कर लिया था, कि पद्मावती के प्रेम-मार्ग में शिर काट कर दे दूंगा, और उस मार्ग में चलूंगा; इस पर राजा कहता है, कि मैं पहले-हौ शिर दे कर तब दूस प्रेम-मार्ग में चलने को तयार हुआ । सो जो पहले-हौ से शिर दे कर मार्ग में पैर को धरता है, वह तो मरा-ही है, और मरने पर तब मार्ग में चल रहा है, इस लिये मार्ग में परम क्लेश की मर्यादा है मृत्यु सो) मरे हुए को मृत्यु क्या करती है, अर्थात् कुछ नहीं कर सकती, मरे को क्या मारेगौ ॥ (मैं) सुख को
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