१४३-१४४] सुधाकर-चन्द्रिका। अकूत, 1 .. काल के दानार्थ, संकल्प करने के लिये हाथ में लिये हो, वह सिंहल-दीप को जा सकता है; श्राप ऐसे सदा के सुखियों का काम नहीं, कि सिंहल-दीप जाने का साहस करे॥ क्षार, चौर, दधि, जलोदधि, सुरा, किलकिला और ये सात समुद्र है। कौन (ऐसा है जो जहाज पर) चढ कर, इन सातो समुद्रों को नाँघे ; (और) किम का ऐसा पराक्रम है (जो दून सातो के लाँघने के लिये माहम करे)। पुराणों में सर्वत्र क्षार, चौर, दधि, घत, इक्षु-रस, सुरा, और स्वादु-जल के समुद्र लिखे हैं ; दून में चार, क्षौर, दधि, सुरा, स्वादु-जल जल, ये मलिक महम्मद के कहे हुए समुद्रों से मिलते हैं; केवल इक्षु-रस और त इन दोनों के स्थान में यहाँ किलकिला और अकूत हैं । ऊख के रस को जब कराहे में खौलाते हैं, तब वह भौ भयङ्कर तरङ्ग और किलकिला अव्यक शब्द करने लगता है, (भारत शल्य पर्व, अध्याय ३ ० , श्लो, ४ ६ में भी लिखा है कि 'ततः किलकिला शब्दः प्रादुरासौ द्विशाम्पते'।) और दूध से दधि, दधि-मन्थन से तब सब दूधों का रत्न-रूप घत उत्पन्न होता है। दूस लिये जान पड़ता है, कि कवि ने भयङ्कर किलकिला शब्द को ले कर दत्-रस के स्थान में 'किलकिला', और रत्नों से भरा रत्न-रूप, मानसर वा अकूत, रत्न-रूप रत के स्थान में रकहा। ऐसे तात्पर्य से एक-वाक्यता हो जाती है ॥ १.४३ ।। ७ चउपाई। गज-पति यह मन-सकती सौज। पइ जेहि पेम कहाँ तेहि जोऊ ॥ जो पहिलइ सिर देइ पगु धरई। मूए केरि मौचु का करई ॥ सुख सँकलपि दुख साँबरि लौन्हा। तउ पयान सिंघल कह कौन्हा ॥ भवर जान पइ कवल पिरीती। जेहि मँह बिथा पेम कइ बौती ॥ अउ जेइ समुद पेम कर देखा। तेइ प्रहि समुद बूंद परि-लेखा ॥ सात समुद्र सत कीन्ह सँभारू । जउ धरती का गरुअ पहारू॥ जेड पडू जिउ बाँधा सत बेरा। बरु जिउ जाइ फिरइ नहिँ फेरा॥ दोहा। रंग नाथ हउँ जा कर हाथ आहौ के नाथ । गहे नाथ सो खाँचई फेरत फिरइ न माथ ॥१४४॥
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