दश कोस चल कर, अर्थात् दश कोस को कडी मंजिल करने से, शरीर खेद-कण (श्रोम) से भौंग जाती है। दश के ग्रहण से कवि ने स्पष्ट किया, कि प्रतिदिन लोग दश कोस चलते थे, जो राजकुरो के लिये बहुत है ॥ (डेरा पड़ने पर ) सब चेला, अर्थात् कुअर लोग, ( यथा योग्य) स्थान स्थान में मोते हैं, (परन्तु ) राजा आप अकेला ( पडा) जागा करता है ॥ (राजा को क्यों नहीं निद्रा आती इस पर कवि कहता है, कि) जिस के हृदय में प्रेम-रङ्ग का जन्म हुआ, वा जिस के हृदय में (गाढा हो कर) प्रेम-रङ्ग जम गया, (फिर) तिस को क्या भूख, निद्रा और विश्राम, अर्थात् दूम प्रेम-रस को ऐसी नशा है, कि दूस में भूख, प्यास, निद्रा, विश्राम, सब शरीर से बाहर हो जाते हैं ; हृदय, आँख, नाक, कान, बुद्धि, सव में वही प्रेम-रस बस कर तरङ्ग मारा करता है ॥ (सघन वन-वृक्षों के कारण ) अन्धकार वन में, (और) अँधेरी रात में (राजा के लिये पद्मावती का) अत्यन्त भारी विरह (जो है मोई जानौँ) भादव (वर्षा के बीच का माम ) हो गया (भण्उ) ॥ (ऐसी भादाँ को अँधेरौ घन-घेरी रैन में ) वैरागी, अर्थात् संसार से विरक्त हुा राजा रत्न-सेन, हाथ में फिंगरी को लिये (गहे), ( बजा रहा है, जिस के ) पाँचो तारों को धुनि में यही एक ( पद्मावती) लगी है, अर्थात् 'पद्मावती, पद्मावती' यही पाँचो तारों में से धुनि निकलती है (जैसे वैरागी सिद्ध होने के लिये अपनी शरीर-रूपी सारंगी के पञ्चतत्त्वरूप वा पञ्चप्राण-रूप तारों से 'राम राम' यही धुनि लगाये रहता है ) ॥
(राजा के ) नयन तिसौ मार्ग में लग गये, जिस द्वीप में कि पद्मावती है, (जैसे योगी के नयन हृदय-दौपान्तर्गत परब्रह्म-रूपा प्रकृति पद्मावती-हो की ओर लग जाते हैं)। जैसे वन में चातक, जल में सौपी, (ये दोनों) खाती को सेवते हैं, अर्थात् खाती-ही का भजन किया करते हैं, (तैसे-हौ राजा ने सब संसार के जाल से बाहर हो, केवल 'पद्मावती पद्मावती' रट लगाया है)। आर्द्रा, पुनर्वसु, पुथ्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी, हस्त, चित्रा और खाती। इन दशौँ नक्षत्रों में जब तक सूर्य रहता है, तब तक वर्षा ऋतु रहती है, परन्तु यह प्रसिद्ध कहावत है, कि चातक ( पपीहा) खाती-हौ का जल पीता है। तुलसौ-दास ने भी इसी कहावत पर लिखा है, कि
तुलसी के मत चातकहि केवल प्रेम पियाम ।
पियत स्वाति जल जान जग जाँचत बारह मास ॥ (दोहावली) ३०८ दो।