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पदुमावति । १३ । राजा-गजपति-संबाद-खंड ।

प्राप=त्रात्मा= भुई = भूमि। सेतौ = से। कया = काय = शरीर। मदुल = मल = मैल । पुडमि= पृथिवी = पुङमौ। मलौजदू = मलिन होती है (मलिनायते)। दस = दश । कोस क्रोश । श्रोस = अवश्याय, यहाँ पसौने का जल-विन्दु । तन = तनु = शरीर । भौजदू भेजते = चमकती है = भौंगती है। वा, भौजदू = भिनत्ति = भिद्यमान होती है। ठाव स्थान। मोअहिँ = सोश्रदू (शेते) का बहु-वचन। जागदू = जागर्त्ति= जागता है। आपु = खयम्। अकेला = एकलः । हिअ = हृदये = हृदय में। पेम = प्रेम । रंग जामा = जन्म लिया, वा जम गया। भूख = बुभुक्षा। नौंद = निद्रा । बिसरामा = विश्राम = श्राराम। अधिभार = अन्धकार । रइनि= रजनौ-रात। अधि- प्रारौ= अधिकार का स्त्रीलिङ्ग । भादउ =भाद्रपद = भादव महीना, जो वर्षा-ऋतु के मध्य में होता है। बिरह = विरह = वियोग। किंगरौ=बैरागियों को सारंगी, वाद्य-विशेष । गहे = ग्रहण किये । बदूरागौ = वैराग्यौ = वैरागी = योगौ। पाँच- पञ्च। तंत = तन्तु = किंगरी के तार। धुनि = शब्द = आवाज। लागौ = लगी। मारग = मार्ग = राह। पदुमावति = पद्मावती। दीप = द्वौप= सिंहल-दीप। जदूस = यथा = जैसा । सेवातिहि = स्वातौ को। सेवई = सेव - सेवते । चातक = पपीहा (दोहे की टौका देखो)। सौप = सौपी =शक्ति, जिस में मोती उत्पन्न होती है।

दिन को यात्रा होती जाती है, अर्थात् लोग दिन भर चलते हैं, (जब संध्या का समय आता है, तब ) मृगारण्य में डेरा पडता है, अर्थात् जिस वन में व्याघ्रादि प्राणि- हिंसक जन्तु नहीं रहते, केवल मृग-ही रहते हैं, ऐसे वन में, प्राण जाने का भय न रहने से, लोग ठहर जाते हैं। वा अपने परिचित स्थानों के बाहर जाने के लिये लोगों ने नर्मदा के तट पर मृगारण्य (हरिण-पाल) में पहला वास किया ॥ कुश को चटाई (माँथरि) (वहौ) सोने योग्य शय्या हुई है, अर्थात् जो लोग मखमल को प्राय्या पर मोते थे, वे लोग अब कुश को चटाई पर सोते हैं। करवट भूमि से श्रा कर बनौ है, अर्थात् भूमि-ही पर करवट लेने को शोभा है, क्योंकि चारपाई पर तो सावधानी से करवट लेना पड़ता है। सावधानी न रखने से भूमि पर गिर जाना पडता है, और भूमि में तो बे-खटके चाहो करवट लेते कई बल खाते जाओ, परन्तु गिरने का डर नहौं ; मो लोग जमीन-ही पर करवट लेते हैं ॥ (राह में चलते चलते पदाघात-धूलियों से शरीर भर जाती है, इस लिये) जैमी भूमि (खर कतवार, धूर इत्यादि से) मलिन होती है ; उसी प्रकार (लोगों कौ) शरीर मलिन हो जाती है। ..