१४१] सुधाकर-चन्द्रिका। २८३ अथ राजा-गजपति-संबाद-खंड ॥ १३ ॥ चउपाई। होत पयान जाइ दिन केरा। मिरगारन मँह होत बसेरा ॥ कुस-साँथरि भइ सेज सुपेती। करवट आइ बनी भुइँ सेती ॥ कया मइल तस पुहुमि मलीजइ। चलि दस कोस ओस तन भौजइ ॥ ठाव ठाव सब सोअहि चेला। राजा जागा आपु अकेला ॥ जेहि के हिअइ पेम-रंग जामा। का तेहि भूख नौंद बिसरामा ॥ बन अधिभार रइनि अधिभारी। भादउ बिरह भाउ अति भारी किंगरी हाथ गहे बइरागौ। पाँच तंत धुनि यह प्रक लागौ ॥ दोहा। नयन लागु तेहि मारग पदुमावति जैहि दीप । जइस सेवातिहि सेवई बन चातक जल सौप ॥ १४१ ॥ प्रयाण = यात्रा = गमन । मिरगारन = मृगारण्य जिम वन में केवल मृग-ही रहते हैं। बसेरा = वाम = शिविर = डेरा। कुम-माँथरि = कुश-संस्तर = कुश का बिछौना = कुश का डामन । सेज = शय्या । सुपेतौ = सौप्तिको = सूतने के योग्य । करवट प्राकृते कडिवट्टी = संस्कृते कटि-वृत्तिः= करवट करना वा लेना बा बदलना सूतने में दूधर से उधर फिर जाना। बनी = वा = वर्णन के योग्य शोभित है। पयान 1
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