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२८२ पदुमावति । १२ । जोग.-खंड । [१४० दे० ८१°। ५३' पू. । अलाउद्दीन ने ( १२८ ५ ई . ) जब दक्षिण पर चढाई को थी। फिरिश्तः (dies ) ने राजमहेन्द्री के राजाओं को स्वतन्त्र राजा कहा है। (See Hamilton's Description of Hindustan, Vol. II., p. 80). इन सब से सिद्ध होता है, कि 'माँझ रतन-पुर सौह-दुबारा' का रतन-पुर और सिंदवारा दोनों के बीच से होते। और झारखण्ड के पहाडौ-भाग को बाई ओर छोड़ते ( झार-खंड देंदू बाउँ पहारा ) चलना चाहिए ऐसा अर्थ करना चाहिए। इन सव देशों के अनुसार जिस मार्ग से राजा रत्न-सेन चित्तौर से समुद्र-घाट तक पहुंचा उस का नक्शा अलग पत्र पर लिखा है। विशेष संभव है, कि उस समय यही राह रही हो। राह में आज कल जो नगर पड़ते हैं उन के नाम - चित्तौर, निंबारा (Nimbara), नीमच, मण्डलेश्वर, जौडा, रतलाम, इन्दोर, नौमार (मृगारण्य = हरिण-पाल), बीजानगर, हँडिया, हुशंगावाद (अँधियार, खटोला), मण्डला, लॉजी, नवागढ, जयपुर, राजमहेन्द्रो, करिङ्गा । हरिण-पाल तक सब देश राजा के परिचित थे। दूस लिये वहाँ तक सुगमता से यात्रा हुई। दूसौ लिये दूस का वर्णन अनावश्यक समझ कवि ने नहीं किया। फिर वहाँ से प्रति दिन दश दश कोस चलने पर एक महीने के आसन्न में लोग गज-पति के यहाँ पहुँचे 'मासेक लाग चलत तहि बाटा'। नक्शे में हरिण-पाल से राजमहेन्द्रौ ७५० अँगरेजी* मौल होती है, जिन के हिन्दुस्तानौ कोस ३३० होते हैं जो कि प्रतिदिन दश कोस चलने से ३३ दिन में पूरे पड़ते हैं। इस नियम से जो राह नक्शे में है वह प्रायः ठीक मालूम होती है। कवि ने मध्य प्रदेश से विशेष परिचित होने के कारण, वहाँ के अनेक स्व-समय के प्रसिद्ध देशों के नामों को लिखा है। फिर भागे झारखण्ड, उडीसा कह, झट गज-पति तक पहुंचा दिया। उस समय उधर डाँकुओं के रहने के कारण बहुत प्रसिद्ध नगर भी नहीं थे। तक नापने से . हिन्दुस्तानी कोस = ८००० हाथ। अंगरेजी मौल = ५२८० फु० = ३५२० हाथ, इस लिपे यदि य, हिन्दुत्तानौ कोस में र, मौत समझो तो ८००० य = ३५२० र । २२० का अपवर्तन देने से २५ य = ११र रस लिये यदि य = १९, नो र = २५ । अर्थात् अंगरेजी २५ मौल में हिन्दुस्तानी ११ कोस होते हैं।