१३६] सुधाकर-चन्द्रिका। २७५ अब (सब कोई ) वन-विभाग में श्रा कर पडे हो, जहाँ दण्डकारण्य है (जो कि) व्यूह-वन है, अर्थात् सेना-संबन्धि वन है वा विन्ध्याचल का वन है। पुराणों में कथा है, कि सूर्यवंश का एक दण्डक नाम राजा था। वह एक दिन सेना के सहित आखेट के लिये दक्षिण दिशा की ओर गया। वहाँ शुक्र को कन्या को देख कर, कामातुर हो, उस से बलात् व्यभिचार किया। इस पर शुक्राचार्य ने शाप दिया, कि सैन्य समेत तुम जङ-स्वरूप वृक्ष हो जाव। इस प्रकार शुक्र के शाप से दण्डक-वन हुश्रा, जिस में सब वृक्ष सेना के संबन्ध-हौ से हुए, दूस लिये कवि का कहना बहुत ठीक है। राम- चन्द्र को वन-यात्रा में अगस्त्य के कहने से राम ने दूस दण्डक-वन में प्रवेश कर, शापोद्धार किया है। अरण्य-काण्ड में तुलसौ-दास ने भी अगस्त्य-वाक्य कहा है, कि दण्डक-बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र माप मुनि-बर कर हरह ॥' संप्रति दक्षिण में नासिक-प्रान्त के सब स्थल, पञ्चवटी इत्यादि दण्डक-वन के अन्तर्गत-ही हैं ॥ (आगे ) चारो दिशा में पलाश का सघन वन फूला हुआ है। वहाँ के भूले को, अर्थात् यदि वहाँ कोई राह भूल जाय, तो उस को बहुत-ही दुःख मिलेगा ॥ मो (सब कोई ) जहाँ झाँखर, अर्थात् कँटौले वृक्ष हाँ उस राह को छोडो, (और) मकोय के पास जा कर, (उस के काँटे से) कथे को न फारो ॥ (बागे) दहनी ओर विदर्भ और बाई ओर चंदेरी है, (मो) देखें (हम लोग) दोनों स्थानों में (जाने के लिये जो दो बाट हैं उन दोनों में से) किस बाट में हाँगे, अर्थात् देखें किधर चलना होगा। चित्तौर से राजा पूर्व की ओर चला है, इस लिये राह में दहनी ओर विदर्भ का छूटना और बाई पोर चंदेरौ का कूटना यह संप्रति नक्शे से भी ठोक पड जाता है । (आगे बढ कर ) एक राह सिंहल को और दूसरी लका के पास गई है, (और ) वे दोनों राह आगे-हौ है, (सो) देखें किस द्वीप में हम लोग जायेंगे, अर्थात् देखें किम द्वीप में जाना होगा। राजा रत्न-सेन पद्मावती के प्रेम में विहल हो कर, उसी के ध्यान में निमग्न हो, किसी से कुछ बात-चौत नहीं करता है, दूसौ से राज-कुरों को पक्का भेद नहीं मालूम है, कि किस राह से और कहाँ चलना होगा। और राजा को भी राह तो विदित-ही नहीं है, केवल प्रेम-रम से मतवाला हो शक के कहने से चल पडा ; दूस लिये जब सब योगौ-रूप कुऔर आपस में इस तरह की बात-चीत करने लगे, तो होरा-मणि ने समझा, कि राह न मालूम होने से ये लोग भटक रहे हैं, और संशय में पडे हैं, इस लिये उन लोगों का संशय मिटाने के लिये अगली चौपाई में शुक का बोलना न्याय प्राप्त है॥१३८॥
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