१३८-१३६] सुधाकर-चन्द्रिका। २७३ हनुमान अपना एक द्वितीय रूप बना कर समुद्र के तट पर स्थापित कर दिया, जो समय समय पर हाँक मारा करता है, और उस हाँक के भय से राक्षम लोग आज तक दूधर नहीं बढते ॥ (योगी लोग आपस में कह कर औरों को सावधान करते हैं, कि) ऐसा मन में (दुर्गम मार्ग को) जान कर (मब कोई ) भागे (अपने को) सँभारो; (और खबर्दार, संग न छोडो) भागे-वाले के पछ-लगू हो, अर्थात् जो आगे चले उस के पीछे पीछे क्रम से लगे हुए सब कोई चलो जिस में संग न छूटे ॥ (इस प्रकार योगौ लोग सावधान हो कर प्रत्यह) भोर को उठ कर याचा करते हैं (और प्रति दिन) दश कोश जाते हैं (कहाँ रुकते नहीं हैं)। (कवि कहता है, कि) जो पथिक, मार्ग में चलते हैं, वे (ते) क्या रह जाते हैं ? (और किसी अन्य पदार्थ के लिये वे लोग राह में ) क्या झुक जाते हैं ?; अर्थात् वे लोग सदा अपनी मंजिल पूरी किया करते हैं, और राह में रुकते नहीं, और दूसरी वस्तु को लालसा से उस ओर झुकते नहीं। जो वस्तु मन में बस गई है, उसी के ध्यान में उसी के आश्रम में पहुंचने का यत्न करते हैं ॥ १३८ ॥ - चउपाई। करहु दिसिटि थिर होहु बटाज। आगू देखु धरहु भुइँ पाऊ ॥ जो रे उबट होइ परहिँ भुलाने । गा मारे पँथ चलहिँ न जाने ॥ पायन्ह पहिरि लेहु सब पवरी। काँट चुभइ न गडइ अँकरवरी ॥ परेउ आइ अब बन-खंड माहाँ। डंडाकरन बौझ-बन जाहाँ॥ सघन ढाँख-बन चहुँ दिसि फूला। बहु दुख मिलिहि उहाँ कर भूला ॥ झाँखर जहाँ सो छाडहु पंथा। हिलगि मकोइ न फारहु कंथा ॥ दहिनइ बिदर चंदेरी बाएँ। दहुँ केहि होब बाट दुहुँ ठाएँ ॥ दोहा। एक बाट गइ सिंघल दोसर लंक समीप। प्रागइ पँथ दूअऊ दहुँ गवनब केहि दीप ॥ १३९ ॥ दिमिटि = दृष्टि = आँख नज़र । थिर = स्थिर। बटाज = वाटेहः (वाटस्य-ईहा- इच्छा यस्य ) = बटोही = राही। श्रागू = श्रागे = अये। देख = देखद् (दृश्यते ) का 35
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