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२७० पदुमावति । १२ । जोगी-खंड । [१३७ 'वामं प्रवासे रटितं हिताय तथोपरिष्टादपि टिट्टिभस्य । टिटौति शान्तं टिटिटौति दीप्तं शब्दद्वयं चास्य बुधा वदन्ति ॥' (वमन्त०, ८ व०, १३ श्लो०) शाकुन-शास्त्र में एक जोडे क्रौञ्च के दर्शन से फल कहा है, और यह जोडा चाहे जिस दिशा में देख पडे सर्वत्र शुभ-हौ फल है। इस पक्षी का धर्म भी है, कि सारम के ऐमा सदा नर-मादे दोनों संग-ही रहते हैं। इस लिये यहाँ 'कूचा' से एक जोडा कूचा समझना चाहिए। और सब भाग को अपेक्षा दहना भाग विशेष कर के उत्तम है। इस लिये ग्रन्थ-कार ने 'दहिनदू' यह लिखा है। सारस के जोडे के ऐमा क्रौञ्च के जोडे का भी फल लिखा है। 'दृष्टार्थसिद्धिः सकलासु दिक्षु स सारसदन्दविलोकनेन' । (वसन्त ० , ८ व०, श्लो. ) ‘स वेदितव्यः कथितोऽर्थकारी क्रौञ्चदयस्याप्ययमेव मार्गः ।' (वसन्त ०, ८ व०, ११ श्लो॰) । जिस को ऐसे शकुन होते हैं, और (वह दून शकुनों से ) जिस को श्राशा से गमन करता है। तिस को (वह श्राशा पूरी होती है, और ) पाठो महा-सिद्धि प्राप्त होती है, जैसा कि (महा) कवि व्यास ने कहा है। (आठो मिद्धि के लिये ४ ६ पृष्ठ में १८ - २ २ पति देखो)। भारतवर्षीय विद्वानों को विश्वास है, कि अन्धकासुर मारने के लिये पहले महादेव जी ने दून शकुनों को प्रगट किया ; उस के पौछ तारकासुर के मारने के लिये, जब महादेव के पुत्र स्वामी कार्तिकेय जी उद्यत हुए तब शिव ने दुन को उन शकुनों को बताया। फिर जम्भदैत्य के मारने की वेला में स्वामी कार्तिकेय ने दून्द्र को दूस शाकुन को बताया। दून्द्र से कश्यप, कश्यप से गरुड ने दूस ज्ञान को पाया । शिव जी के अनुग्रह से अत्रि, गर्ग, भृगु, व्यासादिक ने पाया। दूस परम्परा से यह शाकुन-शास्त्र पृथ्वी पर आया। भारत और वाल्मीकि रामायण में भौ अनेक स्थानों पर निमित्तों का, अर्थात् शुभाशुभ शकुनों का वर्णन है। ऋषियों में भगवान के चौबीस अवतार के मध्य १७ वें अवतार में व्यास की गणना होने से, कवि ने व्यास को महान् समझ कर, व्यास-हौ का ग्रहण किया ॥ १३७ ।।