१३०] सुधाकर-चन्द्रिका। 'अनर्थहेतुर्गतिशब्दहीनः सदा टगालः दृष्टमात्रः । प्रास्ताहि वामा गतिरस्य शस्तो वामो निनादो निशि यो बहनाम् ॥' (वसन्त ०, १४ व०, ४. स्लो०)। आकाश को धोबिन, अर्थात् क्षेम-करी, बायें भाग में आई। कहावत है, कि जब वसुदेव कृष्ण को नन्द के घर पहुँचा कर, वहाँ से यशोदा की कन्या को उठा लाये, और कंस ने उसौ कन्या को देवकी के अष्टम-गर्भ को वालिका समझ, पत्थर पर पटकने के लिये, उस बालिका के पैर को हाथ से पकड कर, ऊपर की ओर घुमाने लगा ; उस समय वह वालिका दूसो क्षेम-करी का रूप धारण कर, कंस के हाथ से निकल, कंस को शाप देती हुई, श्राकाश में उड चली। फिर मिर्जापुर के पास विन्ध्याचल पहाड के ऊपर देवी-खरूप हो कर ठहरो, जो अब तक सब लोगों से पूजित है। देवीपुराण के ४० वें अध्याय में लिखा है, कि 'क्षेमान् देवेषु मा देवी कृत्वा दैत्यपतेः क्षयम् । क्षेमकरी शिवेनोका पूज्या लोके भविष्यमि ॥' इस के दर्शन के समय उसी स्थान में 'कुङ्कुमारूणसर्वाङ्गि कुन्देन्दुधवलानने । मत्स्यमांसप्रिये देवि क्षेमङ्करि नमोऽस्तु ते ॥ , यह प्रणामार्थ मन्त्र भी लिखा है ॥ संप्रति प्रसिद्ध संस्कृत शाकुन-ग्रन्थों में दूस पक्षी का कोई विशेष फल नहीं लिखा है, परन्तु लोक में प्रसिद्ध है, कि यात्रा में दूस का दर्शन शुभ है। तुलमो-दास ने भी अयोध्या से जनक-पुर में बरात चलती समय लिखा है, कि 'छमकरौ कह छम विसेखौ'। कवि ने स्त्री-लिङ्ग होने के कारण, अथवा कुररी के मदृश समझ, शुभ-फल के लिये वायें का ग्रहण किया है। लोमडी श्रा कर (राजा को अपना ) दर्शन दिखाया, अर्थात् दर्शन दिया। शाकुन-शास्त्र में लिखा है, कि 'सिद्ध्यै सदा सर्वसमौहितानां स्याल्लोमशौ दर्शनमात्रमेव ।' (वसन्त०, १४ व०,४४ स्लो०)। बायें भाग में कुररी (टिटिहरी) और दहिने भाग में क्रौञ्च बोलते देख पडे । ( प्राणी को) जैसा मन में रुचे वहौ भोग (उस के पास ) पहुँचता है, (जिन के दर्शन से प्राणी मनो-वाञ्छित भोग को पाता है)।
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