पदुमावति । १२ । जोगी-खंड । [१३० ,१० मङ्गल-द्रव्य पुष्य का दर्शन भी राजा को हुआ। खञ्जन, नाग (=सर्प वा हस्ती) के माथे पर बैठ गया (जिस का दर्शन भी राजा को हो गया) ऐसे खञ्जन के दर्शन से शाकुनज्ञों का वाक्य है, कि राज्य-प्राप्ति होती है- 'तुरङ्गमातङ्गमहोरगेषु सरोजगोछत्रवृषेषु येन। पूर्व च दृष्टोऽहनि खञ्जरौटो निःसंशयं तस्य भवेन्नृपत्वम् ' । (वसन्तराज वर्ग, १४ श्लो०) ‘राजा को दाहिनी ओर दौड कर, एक हरिण आ गया। दक्षिण भाग में ओज (विषम, अर्थात् १, ३, ५ इत्यादि) हरिण शुभफलद हैं। श्रोजाः प्रदक्षिणं शस्ता मृगाः सनकुलाण्डजाः । (बहत्सं० ८५१०, ४३ श्लो.) प्रतौहार और खर बाई ओर बोला, अर्थात् जैसे द्वार-पाल राजा को देख कर अदब से बाई ओर खडा हो कर, जय बोलने लगा, उसी प्रकार बाईं ओर खडा हो कर गदहा भी अपनी भाषा में राजा के लिये मङ्गल-ध्वनि करने लगा। 'रोजा मृगा वजन्तोऽति धन्या वामे खरखनः। (मुहूर्त-चिन्तामणि, यात्रा-प्रकरण, १० ४ श्लो॰) । काला वृष दाहिनी ओर बोलने लगा। शाकुन में साधारण किसी बैल का दक्षिण ओर शब्द शुभ लिखा है। कवि ने कृष्णा गौ के सदृश कृष्ण बैल को पवित्र समझ कर, कृष्ण विशेषण दिया है। 'वामोऽनुलोमश्च रवः खुरेण श्टङ्गेण चाग्रे खननं पृथिव्याः । प्रशस्यते दक्षिणतश्च चेष्टा तथा निशौथे निनदो वृषस्य ॥' (वसन्तरा० १०व०, १० श्लो०) तहाँ पर, अर्थात् जहाँ राजा था वहाँ बाई ओर गोदड (श्रा कर ) डोलने लगा। पशकुन के मन ग्रन्थों में बाई ओर श्टगाल का था कर, न चलना अशुभ फल को देने-वाला है, दूस लिये लेखक-प्रमाद से जो ‘नहिँ' लिख गया था उस स्थान में 'तहँ' किया है। और गादुर, जिसे चमगादुर भी कहते हैं, रात्रि-चर है, दिन को उस के दर्शन से अशुभ फल होता है, क्योंकि सामान्यतः रात्रि-चर जन्तु, प्रायः दिन को निर्भय हो कर दिखाई दें तो शाकुन में अशुभ-फल कहा है, इस हेतु 'गादुर' के स्थान में 'गौदर' किया है।
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