२६४ पदुमावति । १२ । जोगौ-खंड । [१३६ - बौमः = शिष्य । गाउँ = गाव = ग्राम । ठाउँ= ठाव = स्थान । मढ-माया = मठ-माया मठ का विभव = घर का ऐश्वर्य || गेरुश्रा = गैरिक। भेसु = वेष = सूरत। कोस = क्रोश । विंशति । फूला = फूलद् (फुल्लति) का भूत-काल । सु = पलास ॥ राजा (घर से बाहर) निकसा (और) सिंगो को पूरा, अर्थात् बजाया, (और) नगर को छोड कर, दूर हो कर, अर्थात् नगर छोड, दूर जा कर, (माथियों से ) मिला ।। ( राजा की नगरी में जितने ) राय और रङ्क थे, सब वियोगी भये, अर्थात् सब राजा के वियोग से व्याकुल हो कर, घर-बार से मन मोर, वैराग्य धारण किये। (और) सोरह हजार राज-कुमार (राजा के संग ) योगौ हुए ॥ (सब राज-कुरों ने) माया और मोह को हाथ से हर लिया, अर्थात् योग को लालसा से माया और मोह को अपनी मुट्ठी में कर लिया, (और) अन्त में समझ बूझ कर (ज्ञान-दृष्टि से राज-कुरों ने) देख लिया, [कि इस असार संसार में (अन्त में किसी का) साथ नहीं है। सब कोई माथ छोड देंगे, अकेले-हौ उस ईश्वर के यहाँ जाना पड़ेगा। इस से उत्तम है, कि जो लोग अन्त में मेरे संग को छोडेंगे, मैं पहले-हौ से उन लोगों का संग त ] ॥ (यह सोच विचार कर के) सब किसी ने कुटुम्ब लोगों को छोड दिया। (और इस प्रकार से ज्ञान-चक्षुषा सब सुख-दुःख को असार समझ, सब राज-कुबर विरक्त हो, ईश्वर में मन को लगा कर) दुःख और सुख दोनों को तज कर, (संमार से) अलग हो गये ॥ राजा (रत्न-सेन) अकेला उसी को (सोई) स्मरण करता है, जिस के मार्ग में चेला हो कर, खेलता है, अर्थात् कवि कहता है, कि रे ( मन, वा प्रेमी जन,) राजा जिस पद्मावती के लिये एक का चेला बन कर, मार्ग में खेलता है, अर्थात् बौरहे के ऐसा नाचते कूदते चल रहा है ; हृदय में अकेला, अर्थात् केवल उसी पद्मावती को स्मरण करता है, अर्थात् सब से परे प्रकृति-रूप परब्रह्मा पद्मावती-हौ को मान कर, उसी के ध्यान में निमग्न हो रहा है ॥ (राजा) सब को छोड कर, नगर नगर, और गाव गाव, और स्थान स्थान, चला, अर्थात् पद्मावती के ढूंढने के लिये नगर से नगर, गावँ से गावं, और स्थान से स्थान को, चला ॥ (महम्मद कवि कहते हैं, कि जब हृदय को आँख खुल गई तो निश्चय हो गया, कि) किस का घर और किस को मठ-माया, अर्थात् घर को सम्पत्ति। सब कुछ तिम का है, जिम का, कि जीव और शरीर है, अर्थात् जिस सच्चिदानन्द का दिया यह जीव और शरीर है, उसी का सब कुछ है। जो अपना कहे, सो झूठा और संसार को माया में भूला हुआ है ॥ ..
पृष्ठ:पदुमावति.djvu/३७०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।