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२६२ पदुमावति । १२ । जोगौ-खंड । [१३५ 1

नाट

॥ टूटइ (त्रुयति) का भूत-काल । मन = मण = मन = चालीस सेर का एक परिमाण । नउ = नव = नौ। मोती = मौक्तिक = मुक्ता । फूट = फूट (स्फुयति) का भूत-काल । समेटि = समेत्य = बटोर। भरन आभरण । दुख= दुःख । नाँच नृत्य ॥ (रत्न-सेन को) माता रोती है (परन्तु ) पुत्र (बालक) (रत्न-सेन) नहीं फिरता है, (सो) रत्न-सेन (सिंहल की ओर) चला, (जिस से ) जग, अर्थात् चित्तौर गढ, अंधेरा हो गया ॥ (माता रो रो कर कहती है, कि जो) मेरा बेटा रजो-गुण में, अर्थात् हाथी घोडे इत्यादि के सुखोपभोग में, बौरहे के ऐसा रक्त था; मो (उस को यह) पर्वत का शुक (होरा-मणि) (बहका कर) ले चला ॥ रानौ लोग रोती हैं, (अपने ) प्राण को तजती हैं, अर्थात् तजा चाहती हैं। (और) चूरियों को फोरती हैं, (और उन चूरियों के चूर का) खरिहान करती हैं ॥ (छातौ पौट पौट कर) ग्रीवा के श्राभरण और हार को चूर करती हैं । (और रो रो कर, उच्च-खर से विलपती हैं, कि) अब हम लोग किस के लिये (का कह) टङ्गार करेंगौ ॥ जिस को खेल कूद कर, प्रिय प्रिय कहा, वही (रत्न-सेन) चला। (मो अब) यह जीव किस का है, अर्थात् किसी का नहीं है। अब दूस जीव के रहने से कुछ फल नहीं, दूस को शरीर से बाहर-हो कर देना उचित है, क्योंकि मचा जीव-रूप पति-ही जब चला तो दूस अधम जीव के रखने से क्या फल ॥ (इस प्रकार मन में सोच विचार, हाय मार मार, सब रानियां) मरना चाहती हैं, अर्थात् मरने के लिये कूरौ माहुर लेती हैं, परन्तु (क्या करें) मरने नहीं पातौं । (जब पति-विरह को दुःसह) भाग ( हृदय में) उठती है (जिस के ज्वाला को न मह कर सब मरना चाहती हैं, उस ममय) सब लोग (नाना प्रकार की मौता, दमयन्ती) संवन्धिनी कथा को कह कह कर, उस विरहाग्नि को) बुझा देते हैं ॥ (निदान राजा के चले जाने पर) एक घडी तक बडा कोलाहल हुत्रा (जहाँ देखो, तहाँ रोदन-ही के शब्द )। फिर पीछे महा-रोदन हो कर, बीत गया, अर्थात् सब कोई रो बिलप कर, शान्त हो गये। ईश्वर की प्रबल इच्छा समझ, 'हरेरिच्छा गरीयसी' इस सिद्धान्त को सत्य विचार, लोगों ने हृदय में धौरज को बाँध लिया ।। (रानियों के विकल हो कर, हार और चूरियों के तोडने फोडने से) नव मन मोती टूटी, (और) दश मन काँच, अर्थात् चूरौ, फूटौ। (सब रानियों ने और) सब श्राभरणों को समेट लिया, अर्थात् अङ्ग से उतार, अलग कर दिया। (उस समय