१३४] सुधाकर-चन्द्रिका । २५८ G और सोचने लगी, कि इस फल को खा कर, अमर और अजर हो कर, अनन्त काल तक व्यभिचार दुराचार से कहाँ तक पाप की गठरौ भारी करती रहगी, मो उत्तम यह, कि यह फल राजा को दूं। इस बात को मन में ठान, वह राजा भर्तहरि के पास गई, और फल-स्तुति के साथ उस फल को राजा के कर कमल में समर्पण किया। राजा ने फल को पहचाना, और वेश्या को बहुत मा धन दे, विदा कर, महल में जा, श्याम-देवी से पूछा, कि तुम ने उस फल को क्या किया ; उस ने सहज स्वभाव से हस कर, मनोहर वाणी से कही, कि आप का प्रसाद समझ कर, श्रादर-पूर्वक खा गई । दूस पर राजा ने रानी को फल देखा कर, लन्जित किया, और संसार को यह गहन लीला देख, अपने को, तथा रानी इत्यादि को- 'यां चिन्तयामि सततं मयि मा विरक्ता मा चान्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः । अस्मत्तते च परितुष्यति काचिदन्या धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥ दूस श्लोक से धिक्कार देता हुश्रा, राजा पाट छोड, संसार से विरक्त हो, गोरख-नाथ से दीक्षा ले, योगी बन, देश विदेश फिरने लगा। एक दिन चाँदनी रात में भर्तहरि- योगी ने राह में पडे हुए तथा चमकते हुए उज्ज्वल थूक को रुपया समझ, उठाने के लिये झुक कर, हाथ फैचाया, और जब नीचे की ओर निकट दृष्टि पहुँचौ तब थूक पहचान कर, हाथ को हटा लिया, और अपनी दृष्णा को धिक्कार देता- 'भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषयं प्राप्तं न किञ्चित् फलं त्यक्त्वा जातिकुलाभिमानमनिशं सेवा कता निष्फला । भुक्तं मानविवर्जितं परग्टहे श्वाऽऽशङ्कया काकवत् बष्णे जृम्भिणि पापकर्मनिरते नाऽद्यापि सन्तुष्यसि ॥' दूस श्लोक को बनाया। राजा भर्तहरि संस्कृत के बडे पण्डित थे। इन्हों ने व्याकरण के ऊपर बहुत कारिका बनाई है, और संस्कृत में दून के बनाये नौति-शतक, वैराग्य- शतक, और श्रङ्गार-गतक सर्वत्र बहुत-ही प्रसिद्ध हैं। ऊपर का प्रथम-लोक नौति- शतक और दूसरा वैराग्य-तक का है। योगी लोग, जो मारंगी बजा कर, इन को गीत गाया करते हैं, मत से दून के योगी होने की ऐसी कहानी है, कि रानी ज्याम-देवी ने दून से एक दिन कहा, कि श्राप राजा हैं, परन्तु श्राप को शिकार खेचते कभी नहीं देखा। इस पर एक दिन राजा शिकार खेलने के लिये वन में गया। वहाँ एक काले मृग पर जैसे-हौ बाण को माधा तैसे-ही उस की उन
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