१३३] सुधाकर-चन्द्रिका। २५५ 2 का भूत-काल = दिये। पौठौ = पृष्ठ = पौठ ॥ देहि = देद का बहु-वचन । अमौस = आशिष् = आशीर्वाद। मिलि = मिलित्वा = मिल कर। राखत = राखद् (रक्षति) के लोट लकार में मध्यम-पुरुष का बहु-वचन । पित्र=प्रिय = पति। अहिवात प्राधिपत्य = सौभाग्य = सोहाग ॥ नाग-मती (और) रनिवास को और रानियाँ रोती हैं, (और कहती हैं, कि ) हे कान्त, आप (तुम्ह) को किस ने वन-वास दिया, अर्थात् किस ने ऐसा बहकाया, कि (राम-चन्द्र के ऐसा) राज छोड कर, योगी हो चले ॥ (सो) अब हम-लोगों को कौन भोगिनी करेगा, अर्थात् अब हम-लोग किस के संग भोग-विलास करेंगी। (मो हे नाथ,) हम-लोग भी (आप के) साथ योगिन हाँगौ ॥ (हम-लोगों की प्रार्थना है, कि) या तो हम लोगों को अपने साथ लगावो, अर्थात् अपने साथ ले चलो, या अब, अर्थात् अभौं, (अपने) हाथों से ( हम-लोगों को) मार कर, (तब) चलो, अर्थात् जावो ॥ (क्याँ कि) आप ऐसे प्रीति के करने-वाले (पिरोता = प्रौति-कर्त्ता, वा पिरोता -प्रोतः = प्रसादितः) हमारे-लोगों की सेवा से प्रसन्न प्रिय (पौउ) (जब ) विकुडते हैं, (तब यहाँ श्राप के विना हम लोगों का क्या काम, (क्योंकि) जहाँ राम तहाँ संग में मौता (का रहना भी उचित है), अर्थात् जहाँ आप तहाँ हम-लोगों का भी रहना नौति-संमत है ॥ (हे प्राण-प्रिय, हम-लोग मार्ग में आप को तनिक भी कष्ट न देंगी, किन्तु ) जब तक शरीर के संग को जीव न छोडेगा, अर्थात् जब तक जोती रहेंगी, (श्राप को) सेवा करेंगी (और थकने पर धूल से भरे श्राप के) पैरों को धोयेंगी ॥ ( मान लिया, कि) भले से, अर्थात् अच्छी तरह से पद्मावती का रूप अनूप हो, ( परन्तु, नाथ, निश्चय जानिये, कि) रूप में हम-लोगों से बढ कर कोई नहीं है। (रानियाँ विनय करती करती हार गई, तब वापस में कहती हैं, कि आश्चर्य है कि ) पुरुषों को दृष्टि (तुरन्त-हो) भलहिँ, अर्थात् अच्छी तरह से, घूम जाती है, अर्थात् फिर जाती है, (और पुरुषों का विलक्षण स्वभाव है, कि) जिन (पदार्थों ) को जान लिया, अर्थात् समझ लिया, कि ये मेरे योग्य हैं, तिन ( पदार्थों ) के लिये पौठ नहीं दिये, अर्थात् उन को लालसा में पुरुष-लोग प्राण तक दे देते हैं परन्तु पौछे नहीं हटते ॥ सब मिल कर आशीर्वाद देती हैं, (कि नाथ,) श्राप के माथे के ऊपर नित्य छत्र लगा करे, अर्थात् श्राप सर्वदा राजा बने रहें। (मो ) (प्राण-)प्रिय, ( हम लोगों 5
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