१३१ - १३२] सुधाकर-चन्द्रिका। २४८ ( बेटा,) राज्य, पाट ( सिंहासन ), स्थान वा फौज, और (सब पुर के ) प्रजा-लोग (ये सब) तुम्हीं से उज्वलित हैं, अर्थात् तुम्हारे-हौ से दून सब को शोभा है, विना दुलहा के बरात को शोभा नहीं होती। ( सो मेरे बुढापे की ओर निहार कर, मेरी विनती को खौकार करो। यही ) बैठ कर (दूसो स्थान के सुख ) भोग को रम मानो, अर्थात् यहाँ के जो सुखोपभोग हैं, उन्ही को सुरस समझो। (पद्मावती के रस-भोग को लालसा में फंस कर, घर बार को विध्वंस कर, ऊपर कहे हुए सब पदार्थों को ) अँधेरे में कर, न चलो, अर्थात् तुम घर के चिराग हो, तुमारे बाहर होते-हो सब अंधेरे में पड, तडप तडप और कलप कलप, विकल हो, मर जायँगे, मो दून को अनाथ कर आप न जाये ॥ १३ १ ॥ चउपाई। मोहिं यह लोभ सुनाउ न माया। का कर सुख का कर यह काया॥ जो निभान तन होइहि छारा। माटो पोखि मरइ को भारा ॥ का भूलउँ प्रहि चंदन चोवा। बदरी जहाँ अंग के रोवाँ । हाथ पाउँ सरवन अउ आँखी। ए सब भरहि आपु पुनि साखौ ॥ सूत सूत तन बोलहिँ दोखू । कहु कइसइ होइहि गति मोखू ॥ जउ भल होत राज अउ भोगू। गोपिचंद नहिँ साधत जोगू ॥ उह-उ सिसिटि जउ देख परेवा । तजा राज कजरी-बन सेवा ॥ दोहा । देखि अंत अस होइहइ गुरू दोन्ह उपदेस । सिंघल-दीप जाब मइँ माता मोर अदेस ॥ १३२ ॥ माया माता, वा राज्यादि सुखोपभोग मामग्री। काया काय = अरौर। निधान -निदान तन तनु = शरीर। छार = चार = भस्म । माटोमृत् = मट्टी। पोखि= आपोव्य = पोषण कर =पाल कर । भाराभार = बोझा। का=क्क = क्या । भूलउँ = भूल। चोवा = च्युत द्रव्य - चुवा कर जो सुगन्ध द्रव्य बने। बदरी= वैरी- शत्रु। अंग = अङ्ग। रोवाँ = रोम = रोत्रा । हाथ = इस्त । पाउँ = पावं पाद = पैर। 32
पृष्ठ:पदुमावति.djvu/३५५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।