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१३० - १३१] सुधाकर-चन्द्रिका। २४७ फिर पछताना न पडे, अर्थात् जब तक पौरुष है, तब तक पर-लोक के लिये उपाय कर लो। असमर्थ होने पर केवल पछताना छोड, और कुछ हाथ न लगेगा। भर्तृहरि ने भी लिखा है, कि- यावत् खस्थमिदं शरीरमरुजं यावन्जरा दूरतो यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत् क्षयो नायुषः । श्रात्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् सन्दीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥ (भर्टहरि, वैराग्यशतक ) ॥ १३० ॥ चउपाई। बिनवइ रतन-सेन कइ माया। माथइ छात पाट निति पाया ॥ बेलसह नउ लख लच्छि पिआरौ। राज छाडि जनि होहु भिखारी ॥ निति चंदन लागइ जेहि देहा। सो तन देखि भरत अब खेहा ॥ सब दिन रहेहु करत तुम्ह भोगू। सो कइसइ साधब तप जोगू ॥ कइसइ धूप सहब बिनु छाँहा। कइसइ नौंद परिहि भुइँ माँहा ॥ कइसइ अोढब काँथरि कंथा। कइसइ पाउँ चलब तुम्ह पंथा ॥ सहब खनहि खन भूखा। कइसइ खाब कुरुकुटा रूखा ॥ दोहा। राज पाट दर परिगह तुम-हौँ सउँ उँजिबार। बइठि भोग रस मानहु कइ न चलहु अधिार ॥ १३१ ॥ बिनवदू = विनमति = विनय करती है। रतन-सेन = रत्न-सेन। माया = मा। माथदू = मस्तके = माथ के ऊपर। छात = छत्र = छाता। पाट = पट्ट = = पौढा, यहाँ सिंहासन। निति = नित्य । पाद = पाँय = पैर। बेलसह = बिलसह विलसद् (विलसति ) का लोट-लकार में मध्यम-पुरुष का आदरार्थ, यहाँ बहु-वचन । नउ = नव । लख = लक्ष = लाख । लच्छि = लक्ष्मी। पित्रारौ= प्रिया। राज = राज्य । छाडि = संकुड्य = छोड जनि = मत = न । भिखारौ = भिक्षाकः = भिक्षुकः भिख-मंगा। लाग लगति = लगता है। देखि = दृष्ट्वा = देख कर। भरत = भरति माता = पाया कर।