१२८ - १३०] सुधाकर-चन्द्रिका। २४५ (मो) रे पखरू, अर्थात् रे पक्षि-रूप ज्योतिषौ, में (तो) पक्षी है। जिस वन में मेरा निर्वाह है, उस वन में (यहाँ) खेल कर चला। तुम अपने घर जाव (मुझे मुहर्त से कुछ प्रयोजन नहीं, क्योंकि ऐसे अवसर में मुहर्त का पूछना अपने मनोरथ का भङ्ग करना है) ॥ १२८ ॥ चउपाई। चहुँ दिस आनि साँटिया फेरौ। भइ कटकाई राजा केरौ॥ जावत अहहिं सकल उरगाना। साँबर लेहु दूर हइ जाना ॥ सिंघल-दीप जाइ सब चाहा। मोल न पाउब जहाँ बेसाहा ॥ सब निबहद तहँ आपुन साँटौ। साँटी बिनु सो रह मुख माटो राजा चला साजि कइ जोगू। साजउ बेगि चलउ सब लागू ॥ गरब जो चढेहु तुरइ कइ पौठौ । अब भुइँ चलहु सरग सउँ डोठी । मंतर लेहु होहु सँग-लागू। गुदर जाइ सब होहिहि अागू ॥ = दोहा। राह को का निचिंत रे मानुसइ अपनी चिंता आछ । लेहु सजुग होइ अगुमन पुनि पछिताउ न पाछ ॥ १३० ॥ चहुं = चतुर्पु = चारो। दिम = दिशा। श्रानि = श्राज्ञा = पापथ-पूर्वक प्राज्ञा = दोहाई। माँटिया = माँटिया साँटे-बर्दार = यष्टिक । कटकाई = कटक = सेना = फौज । केरी= की। जावत = यावन्तः = जितने । अहहिँ = हैं, अहद (अस्ति) का बहु-वचन । सकल = सब । उरगाना= उडुकान = जिस के कारण रुक जाना पडे । माँबर = संवल सामग्रौ। जाना = यानम् गमनम् । चाहा = चाहते हैं। मोल = मोल से = मूल्येन खरीदने से। पाउब = पावेंगे । जहाँ = यत्र । बसाहा = विसाधनम् सामग्री = खाने पौने को वस्तु । निबहदू = निर्वहति = निर्वाह होता है। साँटी= यष्टिः = छडी = दण्ड, यहाँ लक्षण से सामर्थ्य। माटी=मृत् = मट्टौ। गरब = गर्व = अभिमान। तुर = त्वरी= चौघ्र- चलने-वाला= घोडा। पौठौ = पृष्ठ = पौठ । सरग = वर्ग = श्राकाश । डौठी = दृष्टि । मंतर = मन्त्र। संग-लागू = संग-लगू = संग लगने-वाले। गुदर = गूदड = चिथडा = जिस से गदडी बनती है। होहिहिं = होंगे। पागू = अग्रे = श्रागे ॥ का = किम् = क्यों । निचिंत 1 -
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