१२७] सुधाकर-चन्द्रिका। २३० विरहाग्नि-कण को गुरु से पा कर बडे यत्न से अपने रक्त, मांस इत्यादि को लगा कर उस विरह-(प्रेम)-अनल की राशि तयार कर ले, जिस के प्रकाश से सकल भूत-मय परमात्मा देख पडने लगे। और यदि अलभ्य चिनगारी पा कर, अपनी असावधानता से उसे बुझा दिया, तो बडे श्रम से जो गुरु ने उस चिनगारी को उत्पन्न किया वह श्रम व्यर्थ हुई, और चेले का भी समय नष्ट होने से वह चेला न इस लोक न परलोक के योग्य हुआ, चौगान के गेंद के ऐसा इधर उधर मारा फिरेगा ॥ (मो राजा कहता है, कि) अब पतङ्ग (कौट ) भृङ्ग को कला कर, अर्थात् जैसे भङ्ग को चिन्ता से कौट (पतङ्ग) भृङ्ग हो जाता है (८८ ३ दोहे को टोका देखो), उसी प्रकार पद्मावती- कमल को चिन्ता से पद्मावतौ-मय हो जाऊँ, (और) जिम (कमल के) कारण जल गया हूँ, (उस के लिये) भ्रमर होऊँ ॥ परमात्म-स्वरूप पद्मावती पुष्प का स्वरूप तो दृष्टि-गोचर न होने से अपरिचित है, इस लिये राजा कहता है, कि उस पुष्य के लिये घूम घूम कर, फूल फूल (और) यदि (जो) उस स्थान में पहुँचू (जहाँ पद्मावतो है), वा यदि उस केतको ( पद्मावती) के यहाँ पहुँच, (तो) शरीर नेवछावर कर, अर्थात् शरीर का बलि-दान कर, ( उस केतकौ-रूपा पद्मावतौ से) मिलू, जैसे (केतकौ के मिलने के लिये) भ्रमर जो दे देता है। केतकी के पत्र कर-पत्र (बारा) सदृश होते हैं, और उस का गुच्छादार श्वेत-पुष्य भी कण्टक से भरा रहता है, दूस लिये विना अङ्ग भङ्ग हुए भ्रमर उस का रस नहीं पा सकता। पद्मावती का मिलना भी विना अङ्ग भङ्ग हुए कठिन है, दूस लिये पूर्णपमा के लिये कवि ने पद्मावती को उपमा केतक से दो। और राजा ने भी मन में निश्चय समझ लिया, कि विना शरौर नेवछावर किये, अर्थात् विना शरीर दिये पद्मावती का मिलना अमम्भव है ॥ १२७ ॥ पूँ, इति प्रेम-खण्ड-नाम-एकादश-खण्ड समाप्तम् ॥ ११ ॥
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