१२६ - १२७] सुधाकर-चन्द्रिका। २३५ फिरा रहे हैं, मो जब तक उस मनो-मणि को वे चोर बाहर निकाल कर, नहीं ले जाते हैं, इस के बीच ही में जाग कर यत्न कर, जिम में वे चोर-ही भागें, और तेरौ भाग जागे ॥ १२६॥ चउपाई। सुनि सो बात राजा मन जागा। पलक न मार टकटका लागा॥ नयनहिं ढरहिँ मोति अउ मूंगा। जस गुड खाइ रहा होइ गूंगा ॥ हिअ कर जोति दीप वह सूझा । यह जो दीप अँधेरा बूझा ॥ उलटि दिसिटि माया सउँ रूठी। पलटि न फिरइ जानि कइ झूठी ॥ जउ पइ नाही असथिर दसा । जग उजार का कीजिअ बसा ॥ गुरू बिरह-चिनगी पइ मेला। जो सुलगाइ लेइ सो चेला ॥ अब कइ पनिग भिरिंग कइ करा। भवर होउँ जेहि कारन जरा॥ दोहा। फूल फूल फिरि पूँछउँ जो पहुँचउँ वह केत। तन नेउछाउरि कइ मिलउँ जउँ मधुकर जिउ देत ॥ १२७ ॥ इति पेम-खंड ॥११॥ जानित हुश्रा=जगा। टकटका = टकटको =तकतक = ताकते ही रह जाने का व्यापार, जिस में न पलक भंजे और न पुतली घूमे। ढरहि = ढरते हैं = गिरते हैं। मोति = मौक्तिक । मूंगा = मुग के सदृश विद्रुम के खण्ड । मूंगा = [ गुं करने वाला मूक । हि= हृदय । जोति = ज्योतिः । सूझा = सूझदू का भूत काल में प्रयोग, सूझद = शुद्ध्यति । अँधेरा अन्धकार । बूझा = बूझदू का भूतकाल में प्रयोग । बूझदू = बुझ्यते । उलटि = उल्लुट्य = उलट कर । दिमिटि = दृष्टि । माया धन, दारा इत्यादि। रुठी= रुष्ट हो गई। पलटि = प्रलुव्य = पलट कर। फिरदू स्फुरति = फिरती है। झूठी झुण्टः = काँटे ऐसौ, अर्थात् असत्य। वा झूठ = उच्छिष्ट, अर्थात् अपवित्र । वा झूठ = झटः ( झट उपचाते ) वा जूटः (जूष हिंसायाम् ) वा झूठ = झट् ( झष् श्रादानमंवरणयोः। भावे क्विप्) । असथिर = स्थिर = अचल । दमा = दशा = स्थिति । जग = जगत् । उजार = उच्चारण। कौजि कौजिये। गुरू = गुरु = उपदेशक। चिनगौ= अग्नि-कण = चिन- जागा
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