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२२८ पदुमावति । ११ । पेम-खंड । [१२४ - जिउ = जीव । दौजित्र = दीजिये। पहिलदू = पहले = प्रथम। नेहहि = स्नेह को। जब = यदा । जोरा = योजना किया = मिलाया। निबाहत = निर्वाहतः = निवाहने में। श्रोरा = अपर प्रान्त = अन्त में । अहठ = अनुठ अनुत्थ =न उठने योग्य। तन = तनु शरीर। जदूस = यथा यादृश = जैसे। सुमेरू = सुमेरु = सुवर्ण का पर्वत, जिम के शिर के ऊपर उत्तर ध्रुव है। परा = प्राप्त हुआ = पड गया। तम = तथा = तादृश = तैसा। फेरू फेर। गगन = श्राकाश । दिमिट = दृष्ट । पेम = प्रेम । अदिमिट = अदृष्ट । गगन त - गगनतोऽपि = आकाश से भी। ऊँचा = उच्च । ऊभा = उदय हुत्रा = उगमनत्रा। सिर शिर ॥ सुखिश्रा = सुखौ = सुख की इच्छा करने-वाला। राज =राज्य | पंथ : पन्थाः = राह । महदू = महति = सहता है। दुख = दुःख । बौथोग = वियोग || ( राजा को व्याकुल देख कर ) सभों ने कहा, कि हे राजा मन में समझो, काल से युद्ध कर के नहीं मोहता है, अर्थात् अच्छा नहीं होता, (क्योंकि प्राण देने के अति- रिक्त और कोई फल नहौं ) ॥ जो कि जीता जाता हो, अर्थात् जिसे जीत सकते हो, युद्ध तिस से करना चाहिए । कृष्ण, जीते नहीं जाते थे, अर्थात् जीतने के योग्य न थे, इस लिये गोपियों ने (उन्हें ) त्याग दिया, अर्थात् जब कंस को प्राज्ञा से कृष्ण को लेने के लिये नन्द के यहाँ आये, और कृष्ण को ले कर चलने लगे, उस ममय गोपियों ने समझ लिया, कि कृष्ण का लौटाना सामर्थ्य से बाहर है, इस लिये प्राण-प्रिय कृष्ण को अजीत समझ, लाचारौ से छोड दिया, (मो हे राजन्, जो अजीत है, उस से युद्ध करना उचित नहीं) ॥ और ( यह तो सिद्धान्त-ही समझिये, कि ) किसी से स्नेह न कीजिये, (क्योंकि स्नेह का) नाम (तो सुनने में बडा चिकना और ) मोठा है, (परन्तु ) खाने से जीव दे दिया जाता है, अर्थात् स्नेह, उदर के भीतर जहाँ पहुंचा, कि प्राणी का प्राण गया ॥ जब (किसी व्यक्ति से ) पहले स्नेह जोडा जाता है (तब जोडने के समय बडा) सुख होता है; फिर अन्त तक निबाहने में कठिन होता है, अर्थात् खेह जोडना तो सहज है, परन्तु अन्त तक उस का निबाहना बहुत-हौ कठिन है ॥ जैसे शरीर का हाथ उठने योग्य न हो (तो वह ) सुमेर तक नहीं पहुंच जाता है, अर्थात् नहीं पहुंच सकता है, तैमा-हौ (दूर प्रेम की चोटी तक पहुँचने में) फेर पडा है। कवि का अभिप्राय है, कि जैसा सुवर्ण और रत्न-मय सुमेरु है, उसी प्रकार स्नेह भी सुवर्ण और रत्न-मय है; परन्तु जैसे सुमेरु को चोटी, जो ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का निवास स्थान है, अत्यन्त ऊंची है, जहाँ बडे बडे प्रलम्ब-बाहुओं का 11