१२३-१२४] सुधाकर-चन्द्रिका। २२० ता सर लिये एक के विरह से दूसरे को ताप न होगा। और यह अच्छा नहौं, कि जीव अलग हो कर शरीर के लिये तडपे और विना जीव को शरीर जीव के लिये पछाडा खाय ॥ राजा कहता है, कि (मेरा) हाथ तो अहठ है, अर्थात् शक्ति के लग जाने से सामर्थ-हौन हो कर, बे-काम हो गया, और (मेरौ ) तनु मरोवर है, तिम (सरोवर ) के हृदय मध्य, अर्थात् बीच में, कमल, अर्थात् पद्मावती बसी हुई है। (मो ) नयनों के लिये (तो) जानों (वह कमल) निकट-ही है, क्योंकि मैं अपने भीतर के नेत्रों से स्पष्ट उस कमल को देख रहा हूँ, (परन्तु उस कमल तक) हाथ के पहुंचने में अति कठिनता है, क्योंकि हाथ का व्यापार तो शरीर के बाहर होता है, और यह कमल तो शरीर-मरोवर के भीतर बमा है, दूस लिये वहाँ पर शक्ति-हौन हाथ का पहुँचमा तो अत्यन्त दुर्घट है ॥ १२३ ॥ चउपाई। सबन्द कहा मन समुझहु राजा। काल सेति का जूझ न छाजा ॥ जूझ जात जो जीता। जात न किसुन तजी गोपीता ॥ अउ न नेहु काहू सउँ कौजिन। नाउँ मौठ खाए जिउ दौजिअ ॥ पहिलइ सुख नेहहि जब जोरा। पुनि होइ कठिन निबाहत आरा ॥ अहुठ हाथ तन जइस सुमेरू। पहुँचि न जाइ परा तस फेरू ॥ गगन दिसिट सो जाइ पहुँचा। पेम अदिसिट गगन तइँ ऊँचा । धुब तइँ ऊँच पेम-धुब जा। सिर देइ पाउँ देव सेो छुआ ॥ दोहा। तुम्ह राजा अउ सुखिश्रा करहु राज सुख भोग। प्रहि रे पंथ सा पहुँचइ सहइ जो बौरोग ॥ १२४ ॥ समुझड = समुझइ ( संबुद्यते ) का लोट में मध्यमपुरुष का बहु-वचन । सेति = से । कद = कृत्वा = कर के। जूझ = युद्ध । छाजा = मोहता। ता सउँ= तिम से = तस्मात् । जात = जायते = जाता है। किसुन कृष्ण, नन्द-यशोदा के पुच । तजौ=तत्याज = त्याग दिया = छोड दिया। गोपीता = गोप-पत्नी = गोपी ग्वालिन । उ = अपि अपर= और। नेहु = खेह = प्रौति = मैचौ। काइ म = किसौ से = कैरपि सह । कौजिन = करिये = कौजिये। नाउँ = नाम। मौठ = मिष्ट। खाए- खादनात् = खाने से। =
पृष्ठ:पदुमावति.djvu/३१७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।