२२० पदुमावति । ११ । पेम-खंड । [१२१ अथ पेम-खंड ॥११॥ चउपाई। सुनत-हि राजा गा मुरुछाई। जानउँ लहरि सुरुज कइ आई ॥ पेम-घात्रो दुख जान न कोई। जेहि लागइ जानइ पइ साई ॥ परा सो पेम-समुंद अपारा। लहरहिँ लहर होइ बिसँभारा॥ बिरह भवर होइ भाउँरि देई । खन खन जीउ हिलोरा लेई॥ खनहिँ निसाँस बुडि जिउ जाई। खनहिँ उठइ निससइ बउराई ॥ खनहिँ पौत खन होइ मुख सेता। खनहिँ चेत खन होइ अचेता ॥ कठिन मरन त पेम-बेवसथा । ना जिउ जाइ न दसउँ-अवसथा ॥ दोहा। जनउँ लोहारइ लौन्ह जिउ हरइ तरासइ ताहि । प्रतना बोल न आओ मुख करइ तराहि तराहि ॥ १२१ ॥ गा= गया = अगात्। मुरुछाई = मूर्छित । लहरि = लहरी = लहर। पेम-घात्री = प्रेम-घात । घाओ= घाव । अपि = निश्चय । समुंद = समुद्र । बिसँभारा विसंभरण = जो अपने को सँभार न सके = बे-खबर । भवर = भ्रमर = श्रावर्त्त । भाउँरि भ्रामरी= घुमरौ। खन = क्षण । हिलोरा = हिल-लोल = इधर से उधर डवाँ-डोल । पद-
पृष्ठ:पदुमावति.djvu/३१०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।