१२०] सुधाकर-चन्द्रिका। २१८ से कैसे हो सकता है। बस इतना ही कह सकते हैं, कि पैर में चन्द्र के ऐसा चूडा और प्रज्वलित सूर्य के ऐसा पायजेब है, और पैर के नखाँ के ऊपर नक्षत्र और तारा-गण के सदृश अनवट और बिछिया हैं, अर्थात् समझ लो, कि जिन नखों के श्राभूषण नक्षत्र और तारा-गण हैं, वे नख अनुपम हैं, उन के उपमा-योग्य जगत् में कोई वस्तु-ही नहीं है। कवि इस प्रकार से नख-शिख का वर्णन कर उन अवयवों को और भी अधिक प्रशंसा के लिये, अर्थात् उन को अनुपम और अपने वर्णन को अधम ठहराने के लिये दोहा कह कर, दूस खण्ड का उपसंहार करता है । (कवि शुकोक्ति को कहता है, कि ) जैसे (पद्मावती के ) अभोग (विना भोग किये हुए, अर्थात् पवित्र) नख से शिखा तक (टङ्गार से भूषित) अवयव हैं, (उन के ) श्टङ्गार का वर्णन करना मैं जाना-ही नहीं, अर्थात् मेरे में उस वर्णन करने की विद्या-हौ नहीं, जिस से यथावत् उस टङ्गार का वर्णन हो। मैं ने उस टङ्गार-भूषित-अवयव के योग्य जगत् में, वा सावधानी से ढूँढने पर भी, तैसा कुछ पाया-ही नहीं, जिस को उपमा (योग्य समझ कर) देऊं ॥ (अर्थात् जिस के पैर को मेवकाई चन्द्र और सूर्य करते हैं उस प्रकृति-पुरुष के चोभ करने-वाले पर-ब्रह्म के वर्णन में वेद भी 'यतो वाचो निवर्तन्ते' इत्यादि कह कह कर, लाचार, हार कर, चुप रह जाता है, तहाँ मेरो क्या सामर्थ्य, कि यथावत् वर्णन कर, पार हो जाऊँ। मो, हे राजन् रत्न-सेन, आप की आज्ञा से जो कुछ बात बुद्धि में आई सो कह सुनाई, नहीं तो मैं ने श्रादि-हौ में कह दिया है, कि 'का सिंगार श्रोहि बरनउँ राजा। ओहि क सिँगार आहौ पद छाजा ॥ सब बातों से शुक ने राजा को सूचित कर दिया, कि केवल वाग्-वर्णन से पद्मावती की शोभा किसी के मन में नहीं पा सकती। पर-ब्रह्म का ज्ञान बाग-विलासाँ से नहीं माक्षात्कार हो सकता। जो योगी हो कर, उस के खोजने के लिये अपने को खोवे, और योग-बल के प्रभाव से उस का दर्शन करे, उस की शोभा को नेत्र-द्वारा हृदय में चुरा कर, देखे, तब वह उन के शोभा का श्रानन्द पा सकता है ॥ १२ ॥ इति नखशिख-खण्ड-नाम दशम-खण्डं समाप्तम् ॥ १०॥
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