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२१६ पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [११६ - १२० (एक) शरीर में, अर्थात् मदन-मन्दिर में, तीव्र कमल-सुगन्ध है, अर्थात् उस में तीव्र कमल के ऐमा सु-गन्ध है, (और उस के ऊपर) पतला वस्त्र ( पवन के झकोर से ) समुद्र के लहर के ऐसा (लहराता) मोहता है॥ (उस के ऊपर) रेशम-डोर में गुहे रत्न के अनेक झब्बा झूलते हैं, (सो) नहीं जानते, कि मदन ने (इस प्रकार से) तयारी कर, किस के ऊपर कोप किया है॥ सो (वह शरीर, अर्थात् मदन-मन्दिर) अभौं कमल को कलिका है। नहीं जानते कि कौन भ्रमर के लिये धरी है। मदन-मन्दिर(= गुह्याङ्ग = योनि) का स्पष्ट रूप से नाम ले कर वर्णन करना रसाभास दोष में गिना जाता है, इस लिये सत्कवि-जन दूस गुप्ताङ्ग का गुप्त-ही रीति से वर्णन करते हैं, दूसौ लिये श्री-हर्ष ने भी दमयन्ती के नख-शिख वर्णन में इस अङ्ग का गुप्त-रौति से नाम ले कर, वर्णन किया है, जैसा कि नैषध में लिखा है, कि- 'अङ्गेन केनापि विजेतुमस्या गवेष्यते किं चलपत्रपत्त्रम् । न चेद्विशेषादितरच्छदेभ्यस्तस्यास्तु कम्पस्तु कुतो भयेन ॥' (मर्ग ७ । स्लो. ८८) इस गुप्त-रीति के वर्णन से स्पष्ट होता है, कि मलिक-महम्मद संस्कृत-साहित्य में सब बातों के तत्त्व-वेत्ता थे। ( पद्मावती के उदर पर, वा उदर में हरिण विहार करती है, यह उत्प्रेक्षा पहले लिख आये हैं। उसी को और दृढ करते हैं, कि) कस्तुरी के परिमल सु-गन्ध को वासना (गमक) से जगत् विद्ध हो रहा है, अर्थात् उस हरिणौ को नाभी में जो कस्तुरी (मृग-मद) भरी है, उस को गमक जगत् भर में छा गई है। तिस को सु-गन्ध लेने के लिये सब भौंरे वा भौर-रूपौ अनेक राजा महाराज लाभाये हुए हैं। ( उसी के लोभ से) उस बन्धन ( झब्बे को रेशम-डोर) को नहीं छोड़ते हैं, अर्थात् उमौ पर एक टक दृष्टि लगाये अचल गडे हुए हैं ॥ ११८ ॥ - चउपाई। बरनउँ नितंब लंक कर सोभा । अउ गज-गवन देखि सब लोभा ॥ जुरे जंघ सेोभा अति पाए। केला खाँभ फेरि जनु लाए ॥ कवल-चरन अति-रात बिसे खौ। रहइ पाट पर पुहुमि न देखौ ॥ देौता हाथ हाथ पगु लेहौं। जहँ पगु धरइ सौस तह देहौं ।