११७] सुधाकर-चन्द्रिका। इस पौठ को जगत् को बैरिन समझ, कवि ने 'वैरिनि' का विशेषण दिया है। ( उस पौठ की ऐसी शोभा है) जानाँ अलङ्कारादि से भूषित अप्सरा फिर कर चली हो (जिस से उस की पौठ-मात्र देख पडती है), अर्थात् अप्सरा कौ पौठ-सदृश पद्मावती को पीठ है। अथवा (उस पौठ को ऐमौ शोभा है), जानौँ (उस पीठ को शोभा से लज्जित हो कर, भूमि से ) फिर कर, अलङ्कारादि से भूषित अप्सरा (वर्ग को) चली गई है ॥ (वह ) पौठ मलय-गिरि से संवारौ हुई है, अर्थात् पौठ नहीं है, जानाँ मलयाचल है। (और उस के ऊपर पडी हुई) बेनी, जानौँ (उम मलयाचल पर) काला नाग चढा हुआ है ॥ (जानों वह नाग देखने-वालों को अपने विष से ) लहर देता हुआ, (उस ) पीठ पर चढ गया है। (और उस के ऊपर पद्मावती का) ओढाया हुआ चौर (वस्त्र) (ऐसा जान पडता है, कि वह नाग) केचुर से मढा है ॥ देखें किस के लिये ऐसौ बेनी की गई है, अर्थात् बनाई गई है। (उस बेनी को ऐसौ शोभा है, जानौँ) भुजङ्ग ने चन्दन के बास को लिया है। उस बेनी-रूपी नाग का मुख पद्मावती के शिर से अलग क्यों नहीं हो जाता है, इस पर कवि की उत्प्रेक्षा है, कि उस (नाग) के माथे पर कृष्ण (अपनी) कला से चढे हैं। सो तब कृष्णावतार के समय, तो (वह कालिय नाग अपनी पत्नी के कृष्ण-स्तुति-करने के कारण) छूट गया था, (परन्तु) अब नाथे विना नहीं छूटता, अर्थात् भगवान् कृष्ण दूस को नाथने के लिये पकड रकबे हैं, इसी कारण से यह पद्मावती के सिर में लगा हुआ है। दूस प्रकार वेणी-नाग का सदा पीठ और शिर के ऊपर अचलत्व स्थापन करना यह अतिशयोक्ति है। 'किरिसुन' को एक वचन होने से एक-वचन क्रिया का प्रयोग है। हम ने श्रादरार्थ टोके में बहुवचन का प्रयोग किया है ॥ ( उस वेणी-नाग को ऐमी शोभा है, जानों) काला नाग मुख में कमल को पकडे हुए देखा जाता है, अर्थात् देख पडता है, (पद्मावती के शिर के ऊपर के केश मूलों का पुञ्ज वेणौ-नाग का बाया हुआ मुख, और उस में सटा हुआ पद्मावती का मुख कमल है)। (अथवा पद्मावती के मुख-सहित वेणौ-नाग को ऐसौ शोभा है), जानाँ (किसी कारण ) विशेष से शशि (चन्द्र ) के पौछे राहु है। ( पद्मावती का मुख चन्द्र और बेनी नाग राह है)। बहुते के मत से राहु सर्पाकार है। वराह-मिहिर ने भी अपनी संहिता में लिखा है, कि- मुखपुच्छविभक्ताङ्गं भुजङ्गमाकारमुपदिशन्यन्ये । कथयन्यमूर्तमपरे तमोमयं मैहिकेयाख्यम् ॥' (अ० ५ । श्लो० ३) 6 चढा 27
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