२०८ पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । उस नाभी-कुण्ड के वर्णन में अभी अपने को अयोग्य समझ, वहाँ से हट कर, बुद्धि को तीक्षण करने के लिये, पौठ और कटि की ओर चला गया, कि दून दोनों के वर्णन से बुद्धि को और वर्णन को परिपाटी अभ्यास हो जायगी, तब अधिक वर्णन-सामर्थ्य होने पर, फिर दूस कुण्ड के वर्णन में बुद्धि को लगावेंगे ॥ ११६ ॥ चउपाई। बइरिनि पौठि लोन्ह वेइ पाछे। जनु फिरि चलो अपछरा काछे ॥ मलयागिरि कइ पौठि सँवारे। बेनी नाग चढा जनु कारे ॥ लहरइ देत पौठि जनु चढा। चौर ओढावा कैंचुलि मढा ॥ दहुँ का कहँ अस बेनौ कौन्हौ। चंदन बास भुगइ लौन्ही ॥ किरिसुन करा चढा ओहि माँथे । तब सो छूट अब छूट न नाथे ॥ कारे कवल गहे मुख देखा। ससि पाछे जनु राहु बिसेखा ॥ को देखइ पावइ वह नागू। सो देखइ माँथहि मनि भागू ॥ दोहा। पंनग पंकज मुख गहे खंजन तहाँ बईठ । छात सिंघासन राज धन ता कहँ होइ जो डौठ ॥ ११७ ॥ बदरिनि= वैरिणी =बैरिन । पौठि = पृष्ठ = पौठ। पाछे = पश्चिमे = पश्चिमावयव में - पौछे। अपकरा = अप्सरा इन्द्र के यहाँ को नर्तको। काछे = काछ काछे हुई = अलङ्कारादि से भूषित। मलयागिरि=मलयगिरि = मलयाचल। बेनौ = वेणी = चोटौ। लहर = लहर को। कैंचुलि = कञ्चुक = कैचुर = कैंचुरी। मढा = मण्डित किया = छादित किया। भुअंगद = भुजङ्ग ने = सर्प ने। किरिसुन वसुदेव-देवको के पुत्र । करा = कला = लोला, वा अवतार । नाथे = नाथने से। कारे काला नाग। ससि = शशौ। मनि = मणि । भाग = भाग्य ॥ पंनग पंकज कमल । खंजन = खञ्जन = पति-विशेष । बईठ =बैठा है। छात = छत्र । सिंघासन = सिंहासन । राज =राज्य । डोठ = देखे ॥ वह (पद्मावती अपने) पीछे की ओर बैरिन पीठ को लिये है। जिस के दर्शन- मात्र से पारौर विना प्राण को हो जाय, वह जगत्-मात्र को वैरिणै-हौ है, दूसौ हेतु । कार=काला। - कृष्ण = पन्नग = सर्प !
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