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११६] सुधाकर-चन्द्रिका। २०७ 'उन्मूलितालानविलाभना भिश्छिन्नस्खलच्छृङ्खलरोमदामा । मत्तस्य सेयं मदनदिपस्य प्रस्खापवप्रोच्चकुचाऽस्तु वास्तु ॥' ७ स०। लो० ८४) उस रोमावली को ऐसौ शोभा है), जानाँ (बास लेने के लिये उस पेट के ऊपर) भौंरों को पति चढी है, जो कि चन्दन-स्तम्भ के, अर्थात् चन्दन-स्तम्भ-सदृश उस उदर के बास से मात गई है, अर्थात् मत्त हो गई है, (जिस से बे-सुधि हो कर, जहाँ को तहाँ पडी हुई है)॥ अथवा (= कद) (जान पडता है, कि वह रोमावली) यमुना नदी (को कालो धारा) है, जो ( यमुना, कृष्ण के ) विरह से सन्तप्त हुई है, (दूस लिये दूसरे जन्म में कृष्ण का विरह न हो, इस मनोरथ से) चल कर प्रयाग के, अर्थात् पद्मावती के शिरोभागस्थ वेणी के (पास), अरदूल-नामक स्थान के ( पद्मावती के कुच-स्थान के) बीच में आई है ॥ (उस पेट पर) नाभी, बनारस का कुण्ड है, अर्थात् काशी-करवट का कूप है, (जहाँ मुक्ति पाने की इच्छा से 'काशी-मरणान्मुक्तिः' इस महा-वाक्य के विश्वास से, लोग, आगे अपना प्राण दे देते थे)। सो उस के सामने कौन हो, (क्योंकि संमुख होने से ) तिस के पास मृत्यु वस जाती है, अर्थात् तिस के यहाँ मृत्यु का डेरा पड जाता है, जिस से बचना कठिन है ॥ बहुत से लोग (प्रयाग में उस कुण्ड-दर्शन के मनोरथ से) पारे के शिरे पर तनु को खिंचवा डाले। बहुत से लोग तिमी कुण्ड-दर्शन की आशा से ( अनेक तपस्या से ) मोझ गये, और ऐसे भी बहुत से देखे गये, जो (उसौ श्राशा से ) धूम्रपान कर मर गये, (परन्तु किसी को कुछ ) उत्तर न दिया, अर्थात् जवाब न मिला, (सब) निराश हो गये। ‘वटमूलं समासाद्य यस्तु प्राणान् परित्यजेत् । सर्वान् लोकानतिक्रम्य रुद्रलोकं स गच्छति ॥' (मत्स्यपुराणान्तर्गत प्रयागमाहात्म्य, अध्या ० ४ । लो० १२) ( प्रसिद्ध कथा है, कि एक मुकुन्द-ब्रह्मचारी, बादशाह होने की इच्छा से, अपनी शरीर को आरे पर चिरवा डाला । वही दूसरे जन्म अकबर बादशाह हुआ।) कवि का अभिप्राय है, कि उस कुण्ड-दर्शन-मनोरथ से अनेक लोग अनेक प्रकार की तपस्या में प्रवृत्त हुए, परन्तु आज तक ऐसौ उग्र तपस्या किसी को न हुई, जिसे ईश्वर की ओर से उत्तर दिया जाय, कि अब तुम उस नाभी के दर्शन योग्य हुए। दूस लिये आज तक किसी को आशा पूरी न हुई। सब निराश ही हैं। कवि भी