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२०६ पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । - सुगन्ध का अनुभव तो अवश्य होता है, परन्तु यह नहीं समझ पडता, कि पेट है, कि नहीं है। स्त्रियों का कृश-उदर होना प्रशंसा में है, दूमौ लिये सुन्दरौ युवती को कृशोदरी कहते हैं । श्री-हर्ष ने भी नैषध में लिखा है, कि - सरसौः परिशौलितुं मया गमिकर्मो कृतनैकनौता। अतिथित्वमनायि सा दृशोः सदसत्संशयगोचरोदरौ ॥ (२ स० । श्लो० ४०) कुंकुम और केसर वर्ण का (वह पेट) शोभित है। यदि ‘वर न' ऐसा दो पद मानो तो (उस पेट के आगे) वर (श्रेष्ठ) कुंकुम और केसर भी नहौं शोभित हैं, अर्थात् सु-गन्धित और सु-वर्ण उदर को शोभा से कुंकुम और केसर भी मन्द पड गये हैं, यह अर्थान्तर हो सकता है ॥ (वह पेट ऐसा) सु-कुंभार है, कि होर का भौ श्राहार नहीं करता है, अर्थात् दूध भी नहीं उस के भीतर पच सकता है। ( केवल ) पान-फूल ले कर (पा कर), अर्थात् मुख-द्वारा पान का रस, नासिका-द्वारा पुष्य का रस पा कर, ( उसौ रस के) आधार से रहता है, (दूसरी वस्तु के पचाने की मामर्थ्य-ही नहीं है) ॥ ( उस पेट के बीचो बीच नाभी से ले कर कुचों के बीच तक जो लंबी) रोमावली है, वह (जानों ) काली नागिन है, जो कि नाभी-(रूपौ बिल ) से निकल कर, कमल (कमल-रूपी पद्मावती के मुख) के यहाँ चलौ है ॥ श्रा कर ( वह नागिन) दोनों नारंगियाँ के, अर्थात् नारंगी के ऐसे दोनों कुचों के, बीच में हुई, अर्थात् कुचों के बीच तक पहुँचौ । ( परन्तु आगे ) मयूर को, -रूपी गले को देख कर, (आगे भय से न जा सको, वहाँ पर ) ठमक कर, अर्थात् रुक कर, रह गई। संस्कृत में भी किसी कवि ने इस प्रकार का रूपक बाँधा है- ‘वदनकञ्जमगादिलनाभितस्तनुरुहावलिरूपसुसर्पिणी अथ समीक्ष्य मयूरशिरोधरां स्थितवती भयतस्तनयोस्तटे'। किसी कवि ने ऐमा भौ रूपक बाँधा है- 'नाभौ विलान्तरविनिर्गतपन्नगौयं संप्रस्थिता नयनखञ्जनभक्षणाय । नासामुदौक्ष्य गरुडभ्रममुद्दहन्तौ गुप्तेव पौनकुचपर्वतयोरधस्तात् ॥' नैषध-कार ने काम-देव-हस्तौ के बन्धन-रज्जु से इस रोमावलौ को उपमा दी है। नाभी को उस खूटे का ान, जिम में कि वह मत्त-हस्तौ उस रज्जु-द्वारा बँधा था, और कुचों को उन हस्ती के सूतने का स्थान बनाया है, उस की कविता यह है- अर्थात् मयूर-रू -