११४] सुधाकर-चन्द्रिका। - मृणालो = श्वास। फेरना = गत । बेडिन = पहाड में रहने वाले बेडे जाति को स्त्री, जो नाचने में बहुत-ही प्रसिद्ध हैं । विन्ध्याचल में चैत्र के नवरात्र में ये सब पहाड से उतर बहुत-ही तमासा दिखाती हैं। आँखाँ से डोरे को पकड कर सुई के छेद में डाल देती हैं। अपने गुह्याङ्ग से जमीन में पडे पैसे रुपये को विना हाथ लगाये उठा कर लोगों को देखा देती है। इस प्रकार लोगों को अनेक हाव भाव से लाभा कर बहुत कुछ कमा लेती हैं। मिर्जापुर के प्रान्त में ये बहुत-ही प्रसिद्ध है। अगरेजी राज्य के प्रभाव से अब दून में भी बहुत कुछ सभ्यता आ गई है, इस लिये दिनों दिन अब अपने दुराचारों को कम करती जाती हैं। पउ-नारि = पयो-नाली जल में कमल को नाली = कमल को डंडी। अभि = उद्दिम हो कर = घबडा कर । साँस नित्त = नित्य प्रत्यह =नित ॥ दोनों भुजा और कलाई सुवर्ण-दण्ड है, अर्थात् सोने के डंडे ऐसौ दोनों जान पडती हैं। यहाँ भुजा से केहुनी और कंधे के बीच का भाग, जिसे बाँह कहते हैं लेना चाहिए। (वे बाँह और कलाई मिल कर ऐसी) भाती (भाई) है, अर्थात् सोहती हैं, जानौँ कुँदेरे से (सुडौल करने के लिये खराद पर ) फेरी है ॥ (उन दोनेाँ बाँह कलाइयों को ऐसौ शोभा है) जानों केले के खंभे को जोडौ हैं। (कंधे से केनौ तक गोल सुढार एक खंभा और केहुनी से मणि-बन्ध तक दूसरा खंभा समझो), और उस कलाई में लाल कमल के ऐसी हथेली है, अर्थात् आश्चर्य शोभा है, कि केले के खंभे मैं लाल कमल फूला है ॥ (वह लाल हथेली ऐसौ जान पडती हैं), जानौँ लोह में डूबी हो, अर्थात् रक्त से भरी हैं, और उस में ऐसी गहरी लाली है, जानौँ जान पडता है, कि उस में से अभौँ खोह के बूंद टपके चाहते हैं । ( उस लाल हथेली को उपमा यदि प्रातःकाल के सूर्य से दें, तो अनुचित है, क्योंकि ) प्रातःकाल का सूर्य तो (अग्नि-पुञ्ज होने से ) तप्त रहता है, और यह तो जूडी ( ठण्डी) है, (तो शीतल को उपमा तप्त से कैसे हो सकती है)। [कवि का अभिप्राय है, कि रवि के कर तो मनुष्य के अङ्ग में लग कर ताप को बढाते हैं, और इस हथेली के कर मनुष्य के विरहाग्नि-ताप को बुझा कर, शीतल कर देते हैं, दूस लिये यद्यपि प्रभात के रवि में हथेलौ सौ लालिमा है, तथापि रवि में विपरीत धर्म होने से हथेली को उपमा रवि से नहीं दी जा सकती। उदय काल का रवि क्षितिज में रहने के कारण मनुष्य की दृष्टि से दूर रहता है, और उस के सब किरणों का तेज दृष्टि में न
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