९११ - १९२] सुधाकर-चन्द्रिका। - (आँखाँ के) ऊपर (उपराहौँ) लाल और काला, अर्थात् घुघुचौ के ऐमा चिह्न हो गया है। होरा-मणि सुग्गे को आँख घुघुचौ सौ होती है ; तहाँ होरा-मणि को उक्ति है, कि उसौ धुंधुचौ-सदृश तिल को देखते देखते उसी को परछाहौँ मेरी आँखों में पड गई है, अर्थात् मेरे आँखों को शोभा उस तिल के प्रतिबिम्ब से है ।। उस कपोल पर के तिल को देख कर ध्रुव (मोहित हो ) आकाश में गड कर, अर्थात् एक स्थान में अचल हो कर, ठहरा हुआ है। क्षण में उठता है (उगता है), क्षण में डूब (अस्त हो ) जाता है, (दूसौ प्रकार रात दिन उठता बैठता रहता है, परन्तु उस) तिल को छोड कर (दूसरे स्थान पर) नहीं डोलता है, अर्थात् नहीं जाता है। कवि को उत्प्रेक्षा है, कि ध्रुव एक स्थान में अचल हो, जो सदा रात को उठा और दिन को बैठा करता है, सो उस को यह मतवाले सौ गति गाल के तिल- दर्शन-ही से हुई है ॥ १११ ॥ चउपाई। सवन सौप दुइ दीप सँवारे। कुंडल कनक रचे उजिबारे ॥ मनि-कुंडल चमकहिँ अति लाने । जनु कउँधा लउकहिँ दुहुँ कोने ॥ दुहु दिसि चाँद सुरुज चमकाहीं। नखतन्ह भरे निरखि नहि जाही तेहि पर छूट दीप दुइ बारे। दुइ धुब दुहुँ खूट बदसारे ॥ पहिरे खुंभौ सिंघल-दीपौ। जानउँ भरौ कच पचौ सौपौ ॥ खन खन जोहि चौर सिर गहा। काँपत बौजु दुहूँ दिसि रहा ॥ डरपहि देओ-लोक सिंघला। परडू न टूटि बौजु प्रहि कला ॥ दोहा। करहि नखत सब सेवा सवन दोन्ह अस दो-उ । चाँद सुरुज अस गहने अउरु जगत का कोउ ॥ ११२॥ सवन = श्रवण = कर्ण = कान। सौप = शक्ति = सोपी, जिस में मोती रहती है। कुंडल = कुण्डल कान का गहना = कर्णपूर । मनि-कुंडल = मणि-कुण्डल = मणि का कुण्डल। लोन = लावण्य = ललित = सुन्दर। कउँधा = कन्ध = जल को धारण करने वाला - मेघ वा विद्युत् । लउकहि = लोकहिँ = प्रकाशहिँ = प्रकाशित होती हैं = चमकती 25
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