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९१०] सुधाकर-चन्द्रिका। १८६ . पतरौ दे घर श्राव करन-फूल पहिराव मोहि। अागि फूल जल लाव कृष्ण कही बारी नहौं । दूस पर गोपियों ने कृष्ण को प्रशंसा नीचे लिखे हुए दोहे से की है। जस कदलो के पात में पात पात में पात। तस चतुरन के बात में बात बात में बात ॥ इसी प्रकार वेद को श्रुतियाँ भी ऐसी होती हैं, जिन के अनेक अर्थ होते हैं। दूसौ लिये श्रुति को काम-दुघा कहते हैं, जिस से जो चाहिए सो निकल सकता है। जैसे चत्वारि श्टङ्गा त्रयो अस्य पादा दे शौर्ष सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवौति महो देवो माँ श्राविवेश ॥ इस श्रुति को वैयाकरण व्याकरण-पक्ष में , ज्योतिषी ज्यौतिष-पक्ष में , वल्लभ-संप्रादय के लोग कृष्ण को मुरलौ-प्रशंसा में, इसी प्रकार प्रायः सभी मत-वाले अपने अपने पक्ष में लगाते हैं। इस प्रकार वेद और चतुरों को सौ मति होने से उस को एक एक बोलौ में अनेकार्थ का भरा रहना कोई चित्र नहीं है। (इस प्रकार की अनेकार्थ गुम्फित वाणी को सुन कर) इन्द्र और ब्रह्मा (दोनों) मोहित हो कर (अपनी वाणणे में वैसे अनेकार्थ को न पा कर) शिर पौटते हैं। इन्द्र के ऐसा चतुर-पण्डित कोई नहौं । भगवान् वामन के पढाने को वेला में सब किसी ने यही कहा, कि इन्द्र से बढ कर चतुर-पण्डित दूसरा नहौँ। और जिस के मुख से चारो वेद निकले उस ब्रह्मा के समान दूसरा वेद जानने-वाला कौन हो सकता है। मो जब ये दोनों पद्मावती को वाणी से मोहित हो शिर पौटने लगे, तब दूसरे इतर जनों को क्या सामर्थ्य है, कि पद्मावती सौ अनेकार्थ और रस-भरी वाणी को बोल सके ॥ अमरकोश, पिङ्गल, भारत और भगवद्गीता के अर्थ करने में भी वह जो ( पद्मावती) है, (मो एक-हौ है) जिसे पण्डित लोग भी नहीं जीतते हैं, अर्थात् जीत सकते हैं । भाखती, व्याकरण, सब षडङ्ग, पिङ्गल-ग्रन्थ, पाय धर्मशास्त्रादि, पुराण और वेद जो हैं, सब के (मत) भेद से तैसो (वह) बात कहती है, अर्थात् चतुर्दश-विद्या को संमति से वह तैसी बात कहती है, (चतुर्दश विद्या शास्त्र-कारों ने 'अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मौमांसा न्यायविस्तरः। पुराणं धर्म-शास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश ॥' यही कहा है। दूसौ का भावार्थ २२ ३ दोहे को टीका में लिख पाये हैं।) (कि सुन कर हृदय में) जानौँ बाण लग जाता है, अर्थात् बाण के ऐसा उस का असर कलेजे पर पहुँच जाता है । -