१८८ पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [११० रसना की ऐसी वाणी है, जिस के सुनने के लिये चातक और कोयल भी मौन हो जाते हैं। उस पर कवि को उत्प्रेक्षा है, कि वे मौन जो हो गये, सो जानों उस रसना ने उन को वाणौ को चुरा लिया, इसी कारण वाणौ-रहित हो गये । (उस के ) वचन से, वौण और वंशो के मधुर शब्द नहीं मिलते, अर्थात् उस की वाणी में वौण और वंशो के माधुर्य से भी बढ कर माधुरी है ॥ चातक और कोयल जो ( सर्व-काल ) नहीं रहते हैं, अर्थात् वसन्त से वर्षा तक दिखाई दे कर, फिर जो अदृश्य हो जाते हैं, (उस का यही कारण है, कि) उस (पद्मावती के) वचन को सुन कर (वैसौ माधुरी अपनी वाणों में न पा कर) लज्जा से छिप जाते हैं ॥ (वह रसना ) प्रेम-मधु से भरे बोल (वचन) को बोलती है, (दूस लिये) जो सुनता है वह (मो) मत्त हो कर और घुमरौ खा कर डोलने लगता है, अर्थात् कर्ण-विवर को राह से जहाँ वह प्रेम- मदिरा से भरी वाणी अन्तः-करण में पहुँचौ, कि प्राणो उस को नशा से मात और घुमर कर डोलने लगता है ॥ उस के पास, अर्थात् उस रसना में, चारो वेद मति (बुद्धि) है, वा चतुर जनों को और वेदों को सब मति है, जो कि सब मति, अर्थात् सब विद्या, ऋग्, यजु, साम और अथर्वण में (भरी हुई ) हैं ॥ एक एक बोली में चउ-गुने अर्थ हैं, अर्थात् उस के एक एक शब्द में अनेक अर्थ भरे हैं। जिस को मति चतुरों के मति को ऐसी और वेद-मति सौ है, उस के एक एक शब्द में अनेक- अर्थ रहना समुचित-ही है, क्योंकि चतरों के शब्द ऐसे-हौ होते हैं। कहावत है, कि कृष्ण से एक गोपी ने भोजन के लिये पत्तल माँगा, दूसरी ने कहा, कि आज मेरे घर पधारिये, तौसरी ने कहा, कि मुझे कर्ण-फूल पहनाइये, चौथी ने कहा, कि मुझे भाग चाहिए, पाँचवौं ने कहा, कि मुझे फल ला दौजिये, और छठवौं ने कहा, कि मुझे जल लाइये। दूस पर चतुरे कृष्ण ने एक-ही वाक्य 'बारी नहौँ' कह कर, सब को उत्तर दे दिया। पहली के उत्तर में बारी, जो कि पत्तल बनाता है, वह नहीं है। दूसरों के उत्तर में बारौ= पारौ, तेरे घर आने की, नहौं। तीसरौ के उत्तर में बारौ= बालौ कान की, जिस में कर्ण-फूल डाल देने से अटक रहता है नहीं है। चौथो के उत्तर में बारी, अर्थात् आग जलाई, नहीं है। पाँचवौँ के उत्तर में बारी अर्थात् फुल-वारी यहाँ नहीं है, और छठवौं के उत्तर में बारौ = वारि = जल नहीं है। यह वाक्यार्थ करना चाहिए। इस पर किसी कवि का नौचे लिखा हुश्रा सोरठा है। .
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