१०८] सुधाकर-चन्द्रिका। १८३ अछूत कवि को उक्ति है, कि पद्मावती के बिहँसते (दन्त-ज्योति के प्रकाश से) जगत् में उजेला हो जाता है। पानों के रङ्ग लगने से (उन अधरों को लालो में और गहिरा- पन श्राने से वह लाली) मजौठ (को लाली) हो गई । (दूम लिये उस लाली के ) आगे कुसुम-रङ्ग स्थिर नहीं रहता है, अर्थात् उडा हा फौका समझ पडता है। इस प्रकार से, अर्थात् ऐसे यत्न से उन अधरों में अमृत भर रकबे हैं, (कि) आज तक वह कूत है, और किसी ने (उस के स्वाद को) नहौँ चकला है, अर्थात् अधरों के भीतर वह अमृत-रस बंद है, दूस लिये जब तक अधर में क्षत न हो, तब तक उस का मिलना कठिन है। ईश्वर को बडौ-हौ कृपा जिस भाग्यवान् पर हो, वह अधर-क्षत कर के उस का पान कर सकता है ॥ (चिर काल तक अमृत-रस के रहने से बिगड जाने की श्राशङ्का न हो, दूस पर कवि को विशेषोक्ति है, कि) मुख के पान उस रस में रंग ढारते रहते हैं, (जिस से उस अमृत-रस में विशेष सुगन्ध और रंगत चढी रहती है, फिर बिगड़ने की क्या बात है) सो (देखें) वह बसा (स्थित वा वामा हुआ) अमृत किस के मुख-योग्य है, अर्थात् कौन ऐसा है जो अपने मुख से उस अधर-मध्यस्थित अमृत को पौवे ॥ (उस ) रंग-रातौ ( पद्मावती) को देख कर, (उस में ) सब जगत् रक्त हो गया, अर्थात् पद्मावती के रूप से मोहित हो, जगत् के सब प्राणियों को दशा चन्द-चकोर सौ हो गई। (जिस समय ) अच्छी तरह से (पद्मावती) विहँसती है (उस समय विहमने के श्रम से कुछ और विशेष लाल हो जाने से अधर ऐसे जान पड़ते हैं, जानों) रुधिर से भरे हैं। शुक कहता है, कि, हे राजा (रत्न-सेन ), ऐसा (अस) वह अधरामृत है, कि जगत् के सब (प्राण) (उस के मिलने कौ) आशा करते हैं, अर्थात् सब को यही लालसा है, कि वह अधरामृत मुझे मिले। (सो नहीं कह सकता, कि) किम के लिये वह (ललित-अधर-रूपो) कमल विकशित हुआ है, अर्थात् खिला है, और कौन (ऐसा) है जो भ्रमर हो कर (उस श्रधर-कमल का) रस लेता है॥ योग-ग्रन्थों में लिखा है, कि जब योगी सिद्ध हो जाता है, तब वह ब्रह्मामृत को पाता है ( सोऽमृतमश्नुते ), इस लिये कवि का अभिप्राय है, कि विना सिद्ध हुए उस अमृत-रस स्वादु को कोई नहीं पा सकता। यों तो जड चेतन सभी को इच्छा बनी रहती है, कि ब्रह्मामृत-पान से अमर हो जाऊँ, परन्तु वह आशा मृग-तृष्णा-सौ व्यर्थ है, केवल अनर्थ-हौ कारक है ।।१०८॥ - के
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