१८२ पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [१०८ बाता = सु-रंग = सु-रङ्ग = सुन्दर-रङ्ग= सुन्दर-वर्ण। वा सुरंग = सुराङ्ग =सुरा-अङ्ग = मदिरा का अङ्ग, अर्थात् मदिरा का अंश । वा सुरङ्ग = सुराङ्ग = सुर-अङ्ग = देवता का अंश । बिंब = विम्ब-फल = कुंदरू = डुलडुल, जिसे बुलबुल बहुत खाते हैं, और जो पकने पर गहिरा लाल लोहू मा हो जाता है। दुपहरौ = दोपहर के समय फूलने-वाला पुष्य- विशेष। राता=रक्त = अनु-रक । वार्ता = बात। हौरा = हौर = वज्र। सु- बिदरुम = सु-विद्रुम = सुन्दर मँगा। मजीठ = मजीठ के फल का रंग, जो कि बहुत लाल होता है। पान = पर्ण = ताम्बूल । कुसुम = ब” का फूल जो रना-पौत होता है, और जिस के रङ्ग को बसन्ती रङ्ग कहते हैं। थिर= स्थिर। अकृत = विना श्रा- पवित्र । काहू = क्व हि = कोई । तँबोल = ताम्बूल = पान। रसा = रस । अंब्रित = अमृत । रंग-रातौ = रङ्ग-रका = रंग से रंगी। रुहिर = रुधिर। श्रावहिँ = स्वच्छ = अच्छौ तरह से ॥ बिगासा = विकशित हुश्रा । मधुकर = भ्रमर = कमल का रस लेने-वाला ॥ सुन्दर वर्ण वा कुछ मदिरा का अंश लिये अथवा देवांश के सदृश अधर अमृत- रस से भरे हैं। (उन के लालो को शोभा देख कर निश्चय समझो, कि) लज्जा से (ला जि) सु-रङ्ग विम्ब वन में जा कर फरे हैं, अर्थात् वैसी अमृत-रस-भरौ श्रधर को लाली अपने फल में न देख कर-हो वह बन में छिप कर फरता है, यह कवि को उत्प्रेक्षा है॥ अधर को उपमा परम्परा से लोग विश्व-फल से देते चले आये हैं, दूसौ लिये संस्कृत में सुन्दर लालित्य-अधर-वालौ बाला को विम्बोष्ठी कहते हैं। कभी कभी कवि लोग अधर को उपमा बन्धुजीव-पुष्य (उडहुल-पुष्प) से भी देते हैं, जैसा कि श्री-हर्ष ने नैषध के १८ वे मर्ग में दिया है कि 'वौच्य पत्युरधरं कृशोदरी बन्धुजीवमिव भृङ्गसङ्गतम् । मचुलेनयनकजलेनिजैः संवरौतुमशकत् स्मितं न मा ॥ (उन अधरों को ऐसौ शोभा है), जानाँ लाल लाल दुपहरौ के फूल हैं । (दुपहरौ वृक्ष के फूल गहिरे लाल रङ्ग के होते हैं, और अच्छी तरह खिल जाने पर आप से श्राप झड पड़ते हैं; दूस पर कवि की उक्ति है, कि पद्मावती) जो जो बात कहती है (वह जानौँ उस दुपहरौ वृक्ष से ) फूल झरते हैं। (अथवा बात कहने में जो अधरों के बीच में दाँत झलक पडते हैं, उन को ऐसौ शोभा है जानौँ ) हौरा सुन्दर-विद्रुम को धारा (धार = नदी) को लेते हैं, अर्थात् जानौँ सुन्दर-विद्रुम को नदी में होरों को पति पडौ चमकती हो। हाँसौ को उपमा कवि लोग श्वेत वर्ण से देते हैं, इस हेतु
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