१०७ - १०८] सुधाकर-चन्द्रिका। १८१ - . और श्वेत दन्त दोनों मिल कर अनार दाने से झलकते हैं, उस पर नासिका लुब्ध-शुक सौ जान पडतो है)॥ खञ्जन अर्थात् आँखें (नासिका के दोनों ओर उस दाडिम के लिये अनेक) केलि करती हैं, (परन्तु उस के रस को नहीं पा सकती), (मो कवि कहता है, कि) देखें उस दाडिम रस को कौन पाता है कौन नहीं। यदि रलयोः सावर्ध्यात् केलि को केरि समझो तो 'खंजन दुहुँ दिसि केरि कराहौं' दूस का ‘दोनों दिशा को खंजने (उस अनार के रस पाने के लिये ) कराहती हैं, यह अर्थान्तर हो सकता है । अोठों के अमृत-रस को देख कर, कौर नामिका हो गया, अर्थात् नासिका न समझो किन्तु उस अधरामृत के पान के लिये जानाँ शुक श्रा कर ठहरा है। (वार वार) वायु जो (उस अधरामृत को) वास (उस नासिका-शुक के पास) पहुँचाता है, (दूमौ लोभ से वह नासिका-रूपी शुक) श्राश्रम के तट को नहीं छोडता। अर्थात् उस वास से मोहित हो उस अमृत-पान की लालसा से एक-ही स्थान में अचल बैठा हुत्रा है। पद्मावती के श्वासोच्छ्रास-द्वारा उस अधरामृत को वास वार वार नासिका में पहुँ- चतौ-ही रहती है, इस पर कवि को उत्प्रेक्षा है, कि उमौ वास से नुब्ध हो वह नासिका- रूपौ शुक उस अमृत की ताक में घात लगाये अचल एक स्थान पर बैठा हुआ है। अधर में अमृत-रस है दूस के कहने से संक्षेप-रूप में अोठों का भी वर्णन हो गया। विशेष वर्णन के लिये कवि ने आगे की चौपाई श्रारम्भ कौ ॥ १०७ ॥ चउपाई। अधर सुरंग अमी-रस भरे। बिंब सुरंग लाजि बन फरे॥ फूल दुपहरी जानउँ राता। फूल झरहिँ जो जो कह बाता ॥ होरा लेहि सु-बिदरुम धारा। बिहँसत जगत होइ उँजिारा॥ भइ मजौंठं पानन्ह रँग लागे। कुसुम रंग थिर रहइ न आगे॥ अस कइ अधर अमौँ भरि राखे। अज-हुँ अछूत न काहू चाखे ॥ मुख तँबोल रंग ढारहिँ रसा। केहि मुख जोग सो अंब्रित बसा ॥ राता जगत देखि रंग-राती। रुहिर भरे आछहिँ बिहँसातौ ॥ दोहा। अमौं अधर अस राजा सब जग पास करेइ । केहि कह कवल बिगासा को मधुकर रस लेइ ॥ १०८ ॥
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