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१००] सुधाकर-चन्द्रिका। अर्थात् दोनों जग से निस्तार पाता है, पर-ब्रह्म में लीन हो जाता है॥ दुःख भौतर (भीतर = अभ्यन्तर ) जो प्रेम-मधु रकबा है, उस को वही चखता है जो गञ्जन और मरने को सहता है, अर्थात् अपमान और मरण से जो न डरे, वह प्रेम-मधु को चकवे ॥ प्रेम-पथ में जिस ने (अपने) शौस को नहीं लगाया, वह काहे को पृथिवी में अाया, अर्थात् प्रेम के विना पृथ्वी में आना व्यर्थ है ॥ (सो, हे शुक,) मैं ने तो अब (अपने) शिर में प्रेम-फंदे को डाला। (सो, मेरे) पैर को ( उस प्रेम-मार्ग से ) न टाल ( हटाव)। (मुझे) चेला कर के रख, अर्थात् यूँ गुरु हो, और मुझे चेला बना कर प्रेम-मार्ग में चलने का उपदेश दे, उस से निराश मत कर ॥ (तुझे दूस लिये गुरु बनाता है, कि) प्रेम-द्वार को वही (मो) कह सकता है, अर्थात् बता सकता है, जिस ने कि उसे देखा हो। और जिस ने (उस द्वार को ) नहीं देखा, वह क्या जाने कि उस में क्या विशेष (गुण) है। (प्रेम-द्वार में ) तभी तक दुःख है, जब तक कि प्रियतम से भेंट न हो, (और जब प्रियतम मिल गया,) तो (फिर) जन्म भर का दुःख मिट जाता है ॥ (तो, हे शक, पद्मावती को) जैसा अनुपम ते ने देखा है, (तैसा-हौ) नख से शिखा तक (उस के) श्टङ्गार का वर्णन कर । मुझे ( पद्मावती के ) मिलने की इच्छा है, यदि कर्त्ता ( ब्रह्मा) मिलावे (तो) ॥ १० ॥ इति राज-शुक-संवाद-खण्ड-नाम नवम-खण्डं समाप्तम् ॥ ६ ॥ - 21