६६-६७] सुधाकर-चन्द्रिका। १५३ समुद्र, जिम का वर्णन रत्न-सेन की यात्रा में कवि ने स्वयं किया है कि “पुनि किलकिला समुद मँह श्राए”। धनि = धन्या = पद्मावती। कस = कैसौ। निरमरी निर्मला। दहुँ = क्या जाने = दोनों में से । अलि = भ्रमर । करौ= कलौ = कलिका । पदुमिनि = पद्मिनौ। लोनी = सुन्दरी = लवण से युक्त । बखान = वर्णन । अाउ = श्रावो। चाउ=चाह =दूच्छा ।। हौरा-मणि ने जो कमल (पद्मावती) का बखान किया, (तो उम बखान को) सुन कर, राजा भ्रमर हो कर (उस कमल में) भूल गया ॥ (लगा कहने, कि) हे उज्ज्वल पक्षौ, आगे श्रा, जिस दौप को (ते ने ) कहा, उस ने (मो ) (तो) सर्प को (पनग को) मार दिया । (यहाँ दोप-पद में श्लेष है, अर्थात् दीप से दीये को ले कर राजा कहता है, कि दीप अपनी प्रज्वलित शिखा से छोटे छोटे कोटों को मारता है, परन्तु दूस दौप (दौये) ने तो पन्नग, जो मैं , तिमौ को मार दिया । वा पन्नग, जो नाग-मतौ, तिस को मार दिया, क्योंकि मैं उसे अब त्याग कर कमल ( पद्मावती) में भूल गया ॥ (मो) जो यूँ कनक (सुवर्ण) गमक-दार (सुवासिक) स्थान में, अर्थात् सिंहल-द्वीप में , रहा, (तब) कैसे न तेरा नाम हौरा-मणि हो, अर्थात् ऐसे सुन्दर स्थान में रहने-हौ से, दूं ने हौरा-मणि ऐसा सुन्दर नाम पाया ॥ ( सो कह, कि वहाँ का) कौन राजा है, और वह दौप कैसा उतङ्ग (उत्तुङ्ग = ऊँचा) है, जिस (दोपदीये) को सुनते-हौ, रे (शक), मेरा मन फतिंगा हो गया । (और जिस को) सुन कर मेरे नेत्र किलकिला समुद्र हो गये, अर्थात् जैसे लहरों से किलकिला समुद्र व्याकुल रहता है, तैसे-हो उस के दर्शन के उमङ्ग में नेत्र व्याकुल हो रहे हैं ॥ (मो) कह, कि वह सुगन्ध से भरौ धन्या ( पद्मावती) कैसी निर्मल है, भ्रमर (अलि) के मङ्ग है, वा अभौं कलिका (कलो) है, अर्थात् विवाह हो गया है, वा कुआँरी है ॥ और तहाँ जो सुन्दर पद्मिनी हैं, और सब के घर घर जैसे कृत्य (होनौ) होते हैं (उन का भी वृत्तान्त ) कह ॥ तहाँ का मुझ से सब बखान कहता भाव । मैं उस दीप को देखा चाहता हूँ। (तिस दीप का नाम) सुनते तैसौ-ही (देखने को) चाह (इच्छा) उठी है ॥ ६६ ॥ चउपाई। का राजा हउँ बरनउँ तास्। सिंघल-दीप आहि कबिलास ॥ जो गा तहाँ भुलानेउ सोई। गइ जुग बौति न बहुरा कोई ॥ 20
पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२३३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।