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१५२ पदुमावति । ८ । राजा-सुया-संवाद-खंड । ६५-६६] - तब उन के गले में लाल-काली एक धारी जिसे कण्ठा कहते हैं निकलती है। उसी को लोग कहते हैं कि कण्ठा फूटा) और मनुष्य को भाषा पाया, नहीं तो मुट्ठी (मुष्ठि) भर पंख रखने-वाला पचौ हूँ (मेरे में क्या विशेषता) ॥ (मो) जब तक जौता हूँ, उसी ( पद्मावती) का नाम स्मरण कर के मरता हूँ, अर्थात् उस के उपकार को भुला कर कृतघ्न नहीं बना चाहता, किन्तु अपनी सत्यता से उस के उपकार को स्मरण कर मरता हूँ, कि हा मैं ने उस का कुछ उपकार न किया, (और इसौ सत्यता के कारण, कि मैं उस के उपकार को मानता है)। दोनों जगत् में, अर्थात् दूस लोक और परलोक में, जहाँ जाऊँ अवश्य मेरा मुख ललित और शरीर (तन = तनु ) हरित रहेगौ ( क्योंकि मै सत्य-वादी हूँ, झूठे का मुंह काला और शरीर पौलो हो जाती है) ॥६५॥ चउपाई। हौरा-मनि जो कवल बखाना। सुनि राजा हाइ भवर भुलाना ॥ आगे आउ पंखि उजिरे। कहे सो दीप पनिग के मारे । रहा जो कनक सुबासिक ठाऊँ। कस न होफ होरा-मनि नाऊँ को राजा कस दीप उतंगू। जेहि रे सुनत मन भण्उ पतंगू॥ सुनि सो समुद चखु भए किलकिला। कवलहि चहउँ भवर होइ मिला ॥ कहु सुगंध धनि 'कस निरमरी। दहुँ अलि संग कि अब-हौं करो ॥ अउ कहु तहँ जो पदुमिनि लानौ। घर घर सब के होहिं जस होनी। = दोहा। सबइ बखान तहाँ कर कहत सो मो सउँ आउ । चहउँ दीप वह देखा सुनत उठा तस चाउ ॥ १६ ॥ होरा-मनि = होरा-मणि । कवल = कमल । भवर = भ्रमर। पंखि पक्षी। उँजिबारे = उज्वल । दीप = दीया वा द्वीप। पनिग सर्प = नाग। मारे= मार दिया। कनक = सुवर्ण। सुवासिक = सुगन्धवान् = गमकदार । ठाऊँ = स्थान। पतंग = पतङ्ग= फतिङ्गा = कोट, जो दीप को देख कर उस के यहाँ दौड कर जाता है, और उम को ज्वाला से भस्म हो कर प्राण देता है। समुद = समुद्र । चरखु = चक्षुः = नेत्र । किलकिला = सातवाँ = पन्नगम