१४८ पदुमावति । 'नागमति-सुधा-संवाद-खंड । जुत्रा-हार के समान शक का मिलना रानी ने समझा। जुत्रारी लोग हार्थों में जब चाहते हैं तब कौडौ को छिपा लेते हैं फिर प्रगट कर देते हैं। मो श्रान कर (आनौ) राजा को शुक दे दिया। (और कहने लगी, कि) मति को, अर्थात् दूस मेरे कहने को, मानो। मैं ने गर्व नहीं किया था। (किन्तु ), हे कान्त, मैं ने तुम्हारा मर्म लिया, अर्थात् तुमारा भेद लिया, (कि तुम मुझे कैसा चाहते हो) ॥ (मो समझ लिया, कि) बारहो मास जो (तुम्हारौ) सेवा करे, (उस का भी) इतने-हौ अवगुण पर (तुम) विनाश कर डालते हो, (दूस में संशय नहौं ) ॥ यदि तुम्हें झुका कर (नाइ ) (अपनी) गला भी दे दे, (तो भौ) विना जौ मारे न छोडो ॥ (मो तुम) मिलते-हौ में जानाँ अलग हो, अर्थात् यद्यपि प्रतिदिन श्राप से समागम होता है, तथापि श्राप ऐसे निर्मोही हो, जानों कभी को भेंट मुलाकात नहीं । मो, हे प्यारे, तुम से (मुझे) डर है, (कि कभी किसी के प्रेम में फंस कर मुझ से दूर न हो जाव) ॥ मैं ने जाना था कि तुम मेरे-हौ में हौ, अर्थात् मुझे छोड अन्य से कुछ भी संबन्ध नहीं रखते हो, परन्तु तर्क कर के, वा आँख उठा कर, देखती हूँ, तो (तम) सब के हृदय में हो ॥ (मो) क्या रानौ, क्या कोई चेरौ, जिस के ऊपर (तुम) मया (दया) करो, वहौ ( सोई) भलौ है, अर्थात् रूप का गर्ब करना व्यर्थ है, जिस को तुम चाहो वहौ भली रूपवती और सौभाग्यवती है । (सो) तुम से कोई नहीं जीता, वररुचि ऐसे विद्वान, और भोज ऐसे योगि-राज (जिस को बनाई मांख्य-सूत्र पर वृत्ति है) भी तुम से हार गये। जो कोई पहले ( समाधि लगा कर वा श्राप के नाम को रट रट कर) अपने को खोवे, अर्थात् इस संसार से विरक्त हो जाय तब, वह तुम्हारा खोज करे (तो पावे तो पावे ) ॥ यहाँ पति को पर-ब्रह्म मानने से पर-ब्रह्म के पक्ष में भी दोहा समेत सब चौपाइयाँ बैठ जाती हैं ॥ ३ ॥ इति नागमती-शुक-संवाद-खण्ड-नामाष्टम-खण्डं समाप्तम् ॥ ८॥
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