६२-६३] सुधाकर-चन्द्रिका। १४७ जो पति की आज्ञा में रहे, और (उस के प्रसन्न के लिये ) चौण हो कर व्रत करे। सो (स्त्री) चन्द्र के ऐसा निर्मल हो, और जन्म भर मलिन न हो ॥ ६ २ ॥ चउपाई। जुआ-हारि समुझी मन रानी। सुत्रा दोन्ह राजा कह पानी ॥ मानु मतो हउँ गरब न कीन्हा। कंत तुम्हार मरम मइ लौन्हा ॥ सेवा करइ जो बरह-उ मासा। प्रतनिक अउगुन करहु बिनासा जउँ तुम्ह देइ नाइ कइ गौवा। छाँडहु नहिँ बिनु मारे जीवा ॥ मिलत-हि मँह जनु अहउ निरारे। तुम्ह सउँ अहहि अंदेस पिारे॥ मइँ जाना तुम्ह मो-हौँ माँहा। देखउँ ताकि त सब हिअ माँहा॥ रानी का चेरी कोई। जा कह मया करहु भल सोई ॥ दोहा। न जीता हारे बररुचि भोज । पहिलहि आपु जो खोई करइ तुम्हारा खोज ॥ ६३ ॥ इति नागमती-सुआ-संवाद-खंड ॥८॥ का तुम्ह सउँ कोइ =कान्त संशय= डर। जुश्रा =जूत्रा = द्यूत। मानु = मानो। मती = मति = बुद्धि । गरब गर्व = अभिमान। कंत पति। मरम = मर्मभेद। बरह-उ = बारहो। प्रतनिक = इतना = एतावान् । अउगुन अवगुण । बिनासा = विनाश । नाइ = नवाँ कर = झुका कर । गौवा = ग्रीवा = गला । निरारे= निरालय = अलग = दूर । अदेस = देसा पिबारे= हे प्रिय । ताकि = तर्क कर, वा आँख उठा कर । त = तो.= तदा। चेरी= चेटिका = लाँडौ । मया = माया दया = कृपा । बररुचि = वररुचि = विक्रम के नवरत्नों में से एक रत्न-रूपी पण्डित, जिस ने प्राकृत का व्याकरण बनाया है। बहुत से लोग प्राकृत व्याकरण के कर्ता को दूसरा वररुचि कहते हैं, और इस का दूसरा नाम कात्यायन कहते हैं ॥ भोज = धारा के राजा प्रसिद्ध संस्कृतानुरागी ॥ (अन्त में धाई ने शक को दिया। शक के पाने पर) रानी ने मन में जुत्रा- हार समझौ, अर्थात् जैसे जुश्रा को हारी चौज फिर हेर फेर से मिल जाती है, उमौ
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